सोनल पन्नों पर अंकित जीवन - राणी लक्ष्मीकुमारी चूंडावत


राजस्थान के रियासतकालीन युग में किसी क्रांति का सूत्रपात आज की मानिंद आसान नहीं था। उस समय जहां सामाजिक मर्यादाओं के आडंबर सृजित थे वहीं शिक्षा का भी व्यापक प्रसार नहीं था। गिनी-चुनी ही शैक्षणिक संस्थाएं थीं और उन्हीं में भी राजशाही या संभ्रात तबके में जन्में बच्चों को प्रवेश दिया जाता था। ऐसी परिस्थितियों के बीच स्वयं को ढालकर आजादी के सपने देखना और लोक को समझते हुए उसे शब्दों में अंकित करना निस्संदेह दुष्कर था। 
24 जून, 1916 को मेवाड़ के राव चूंडा के वंश में एक लक्ष्मी पैदा हुई, जिसे आगे चलकर लक्ष्मीकुमारी चूंडावत के नाम से जाना गया। लक्ष्मीकुमारी की मां नंदकुंवर झाला देलवाड़े ठिकाने के राजराणा जालिमसिंह की पुत्री थीं तो वहीं पिता विजयसिंह देवगढ ठिकाने के ठिकानेदार थे। हालांकि विजयसिंह का यह वंशानुगत उत्तराधिकार नहीं था। ठिकानेदार रावतकिशन ने उन्हें गोद लिया था। और यही वजह थी कि वे सामंत शासक, रईस और सत्ता केन्द्रित धूरी पसंदीदा थे। लक्ष्मीकुमारी को भी इसी साये में संपूर्ण सुख-सुविधाएं मिली जो हर राजपरिवार के बच्चों को मिलती हैं। नौकर, चाकर, ऐशो-आराम। परंतु लड़कियों की शिक्षा और उनके स्वच्छंद भ्रमण पर अंकुश था और लक्ष्मीकुमारी चाहते हुए भी उन बेडि़यों को नहीं तोड़ पाई। नौ-दस साल की अवस्था हो आने पर घर पर ही उनकी शिक्षा का प्रबंध किया गया। भाई संग्रामसिंह को पढाने मेयो काॅलेज सेे देवी चारण आते थे। घर पर शिक्षा-दीक्षा रूपी इसी व्यवस्था के हिस्से मानिंद देवी चारण ही लक्ष्मीकुमारी और छोटी बहिन खुमाण कंवर को भी अंग्रेजी पढाने लगे। वहीं पंडित पन्नालाल संस्कृत, मुंशी जाफरअली उर्दू भाषा के मोती सौंपने लगे। महेशदान आसिया ने संरक्षक की हैसियत से लौकिक संस्कार अर्पित किए। 
लक्ष्मीकुमारी इसी शिक्षा-दीक्षा के बीच पिता विजयसिंह के यहां आने वाले बातपोसों के माध्यम से बातें सुनकर लौकिक संस्कार ग्रहण कर रही थीं। प्रेम और घृणा के महीन से महीन सूत्रों को समझ रही थीं। राजस्थान में परम्परातगत रूप से चली आ रही प्रेमकथाओं के सूत्र बातों में जब आते तब लक्ष्मीकुमारी का मन द्रवित हो उठता, वहीं वीरता का तुरही वादन बातों में प्रस्तुत किया जाता तब खून खौल उठता। इसी आरोह-अवरोह के बीच ‘चांद’, ‘माधुरी’, ‘सरस्वती’ एवं ‘भविष्य’ जैसी पत्रिकाओं का वाचन-मनन होता रहा। वहीं कानपुर से प्रकाशित दैनिक ‘वर्तमान’ आजादी की ज्वाला प्रज्ज्वलित करता रहा।  
सन् 1934 में जब लक्ष्मीकुमारी मात्र 16 वर्ष की थी, तब उनका विवाह बीकानेर रियासत के रावतसर ठिकानेदार रावत मानसिंह के पुत्र तेजसिंह के साथ कर दिया गया। लक्ष्मीकुमारी के मन की उड़ान यहां शंकाओं के घेरे में आई, परंतु यह भ्रम जल्दी ही दूर हो गया। लक्ष्मीकुमारी को यहां पीहर से अधिक स्वच्छंदता और आजादी मिली। रावतसर के साथ-साथ बीकानेर का ‘रावतसर निवास’ लक्ष्मीकुमारी के सपनों को ऊंचाइयां देने लगे। वह पठन-पाठन में और रम गई। 
उन दिनों अजमेर ही एक ऐसी जगह थीं, जो स्वतंत्रता सेनानियों के लिए मुफसिल थीं। अजमेर सीधा ब्रिटिश क्षेत्र था। लक्ष्मीकुमारी कई दफा अजमेर गईं और अनेक स्वतंत्रता सेनानियों के संपर्क में आई। उनके श्वसुर रावत मानसिंह छोटे-से जुर्म में बीकानेर राजा गंगासिंह के यहां दस साल की सजा भुगत रहे थे। श्वसुर की यह दशा वेदना की पराकाष्ठा थी। लक्ष्मीकुमारी महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू से जुड़ाव के ख्वाब पालने लगीं। इसी दौरान वह महात्मा गांधी से मिलने शिमला भी गईं। 
आजादी के बाद रियासत एकीकरण के बाद रियासतदारों और ठिकानेदारों को सरकारी नौकरी में आने का निमंत्रण मिला। लक्ष्मीकुमारी के पति रावत तेजसिंह सरकारी सेवा में आ गए। यह कदम भी उस वक्त के राजपूत मुखियाओं को काफी पीड़ा पहुंचाने वाला था। रावत तेजसिंह की काफी निंदा की गई। परंतु यह दूरगामी कदम था, जिसकी समझ राणी लक्ष्मीकुमारी व रावत तेजसिंह के पास ही थीं। आगे चलकर  सरकारी सेवा में रावत तेजसिंह सहायक कमिश्नर देवस्थान, सहायक कलक्टर एवं प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट-चूरू, सचिव नगर विकास न्यास-बीकानेर आदि पदों पर रहे। 
इसी बीच राणी लक्ष्मीकुमारी और रावत तेजसिंह के आंगन 1935 में घनश्यामसिंह, 1936 में सुभद्रा, 1938 में रूपमणि, 1942 में उमाशशि, 1944 में बलभद्रसिंह तथा 1950 में राज्यश्री का संतानों के रूप में आना हुआ। 1952 के आम चुनाव आने तक राणी लक्ष्मीकुमारी चूंडावत इन्हीं पारिवारिक दायित्वों में रमी रही। परंतु 1957 का चुनाव आया तब कुछ करने का जज्बा परवान पर था। काफी सोच-विचार के बाद राणी लक्ष्मीकुमारी चूंडावत ने राजस्थान विधानसभा के भीम क्षेत्र को अपने लिए उपयुक्त माना और यहां से 1957 का चुनाव लड़ा। पंडित जवाहरलाल नेहरू की अनुशंसा पर उन्हें टिकट मिला था, इसका राजनैतिक लाभ भी उनके साथ था।
परंतु, राणी लक्ष्मीकुमारी चूंडावत राजपूत समाज की संभवतः पहली महिला थी, जो पर्दा त्यागकर देहरी से बाहर कदम रख रही थीं। इसी प्रगतिशील कदम की बदौलत पूरा समाज उनके खिलाफ था और यह चुनाव उस विरोध के लिए मौका बन गया। फलस्वरूप चूंडावत जी यह चुनाव हार गई। 
1967 आते वक्त नहीं लगा और चूंडावत फिर भीम से ही चुनाव लड़ी। राणी लक्ष्मीकुमारी चूंडावत यह चुनाव जीत गई। अपने अनुभवों को समेटते हुए वे बताती थीं कि कैसे उन्होंने हाथी पर बैठकर दुर्गम क्षेत्रों में चुनाव प्रचार किया। कैसे प्रदेश के सामाजिक संदर्भों ने उनका आजीवन पीछा किया। कैसे पार्टी उनके पक्ष-विपक्ष में खड़ी रही।
किशोरावस्था में पिताजी के यहां बातपोस और बहीभाट द्वारा कही हुई राजस्थानी लोककथाएं, लोकगाथाएं राणी लक्ष्मीकुमारी चूंडावत के लिए राजनीतिक क्षेत्र में काफी सहायक रहीं। लोक की नब्ज उनके गिरफ्त में थीं और लोक की भाषा और भावों के साथ वह चुनाव समर में थीं। इसी बदौलत राजस्थान विधानसभा के अपने पूर्ववर्ती भीम क्षेत्र से ही उन्होंने 1967 और 1980 के चुनाव भी जीते। 
चूंडावतजी की गहरी समझ, निडर स्वभाव और क्रांतिकारी मनोस्थिति के चलते कांग्रेस ने उन्हें प्रदेश का नेतृत्व सौंपने का मन बनाया। सन् 1972 में उन्हें पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया। राजस्थान में 1972 को विधानसभा चुनाव उनकी ही अगुवाई में लड़ा गया और 180 में से 145 सीटों का प्रचण्ड बहुमत पार्टी को मिला। इसी वर्ष यानी 1972 में ही लक्ष्मीकुमारी जी संसद के उच्च सदन राज्यसभा के लिए चुनी गईं।    विधानसभा और संसद में रहते राणी लक्ष्मीकुमारी चूंडावत ने लोकहित के अनेक मुद्दों का उठाया। नारी-उत्थान उनकी प्राथमिकता में था। 
ें चूंडावत जी ने विधानसभा में सभापति रहते उल्लेखनीय कार्य किया। यही नहंी राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ, राजस्थान इंडिया-चाइना मैत्री संघ, भारत-सोवियत मैत्री संघ, अखिल भारतीय सैनिक संगठन, नारी जागृति परिषद, शांति एकजुटता परिषद, साहित्य अकादेमी, राजस्थान साहित्य अकादमी, राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी आदि संस्थाओं के साथ काम करते हुए भी उन्होंने अपनी श्रमशीलता और बौद्धिक क्षमता का दिव्य प्रदर्शन किया।
राजनीतिक उठा-पटक के बीच साहित्य सृजन भी निरंतर रहा। बचपन में जोगदान चारण से सुनी बातों और आगे चलकर गुजराती के लोक साहित्य मर्मज्ञ झेवरचंद मेघाणी की साधना से प्रभावित होकर राणी लक्ष्मीकुमारी ने लोक-साहित्य की राजस्थानी धुन आलापी। सन् 1957 में इसी धुन पर ‘मांझल रात’ संग्रह आया, जोकि उनकी साहित्य साधना का प्रथम उपलब्धिमूलक सोपान था। लोक साहित्य में बात, गीत और गाथा प्रमुख हैं। राणी लक्ष्मीकुमारी चूंडावत ने इन सभी पर जमकर काम किया। मूमल, अमोलक बातां, के रे चकवा बात, राजस्थानी लोकगाथा, राजस्थान की प्रेम गाथाएं, राजस्थान की रंगभीनी कहानियां, देवनारायण बगड़ावत की महागाथा, राजस्थानी लोकगीत, रजवाड़ी लोकगीत, राजस्थान के सांस्कृतिक लोकगीत आदि पुस्तकें इस बात की साक्षी हैं। 
राजस्थानी भाषा की संवैधानिक मान्यता का संकल्प हर कदम का ध्येय रहा। फलित होना, न होना, संयोग-दुर्योग हो सकता है परंतु राणी लक्ष्मीकुमारी की साधना नित्य इस ओर रही। इसी साधना के बीच भारत सरकार ने उन्हें 1984 में राजस्थानी साहित्यिक सेवाओं के लिए ‘पद्मश्री’ से भी अंलकृत किया। राजस्थान सरकार ने 2012 में उन्हें ‘राजस्थान रत्न’ दिया। वहीं अनेक संस्थाओं ने अपने उल्लेखनीय पुरस्कारों से नवाजा। 
आपने बीस से अधिक देशों की यात्राएं भी की। यात्राओं के संस्मरण उनकी पुस्तकें ‘हिन्दू कुश के उस पार’ तथा ‘शांति के लिए संघर्ष’ में मौजूद हैं।
चूंडावतजी द्वारा लोककथा को केंद्र में रखकर लिखी गई कहानी ‘सैंणी-बींझा’ पर दूरदर्शन के सुकन्या और अनुकपूर की मुख्य भूमिका में ‘पथराई आंखों के सपने’ फिल्म भी बनाईं गई।
24 मई, 2014 को हमारे बीच से ऐसी शख्सियत का जाना निस्संदेह एक युग का अवसान होना है। विनम्र श्रद्धांजलि।

रानी लक्ष्मीकुमारी चूंडावत: पुस्तकें

1. मांझल रात ः राजस्थानी कथा संग्रह   ः 1957
2. मूमल : राजस्थानी कथा संग्रह ः 1959
3. अमोलक बातां: राजस्थानी कथा संग्रह: 1960
4. गिर ऊंचा-ऊंचा गढ़ां : राजस्थानी कथा संग्रह: 1960
5. के रे चकवा बात: राजस्थानी कथा संग्रह: 1960
6. राजस्थानी लोकगाथा ः राजस्थानी कथा संग्रह ः 1966
7. राजस्थान की प्रेम गाथाएं :राजस्थानी प्रेमकथाओं का हिन्दी अनुवाद: 1966
8. राजस्थान की रंगभीनी कहानियां: राजस्थानी प्रेमकथाओं का हिन्दी अनुवाद: 1986
9. हुंकारा दो सा : राजस्थानी बालकथा संग्रह : 1957
10. टाबरां री बातां: राजस्थानी बालकथा संग्रह ः 1961
11. गांधी जी री बातां: राजस्थानी बालकथा संग्रह ः 1962
12. बात करामात: हिन्दी बाल कथा संग्रह: 1981
13. हिन्दू कुश के उस पार: यात्रा संस्मरण: 1959
14. शांति के लिए संघर्ष ः यात्रा संस्मरण ः 1966
15. अंतरध्वनि: गद्य गीत: 1948
16. देवनारायण बगड़ावत महागाथा: राजस्थानी लोकगाथा ग्रंथ ः 1977
17. रवि ठाकर री बातां ः रवीन्द्रनाथ ठाकुर की बांग्ला कहानियों का राजस्थानी अनुवाद: 1961
18. संसार री नामी कहानियां ः इटली, फ्रांस, ब्रिटेन, चीन, अमेरिका इत्यादि देशों के रचनाकारों की कहानियों का अनुवाद: 1966
19. सूळी रा सूया माथै: जुलियस फुचिक री पुस्तक ष्छवजम तिवउ ळवससवूेष् का राजस्थानी अनुवाद: 1966
20. गजबण: रूसी प्रतिनिधि कहानियों का राजस्थानी अनवुाद ः 1978
21. लेलिन री जीवनी ः लेनिन की जीवनी का राजस्थानी अनुवाद: 1970
22. कवीन्द्र काव्य लतिका ः संपादित ः 1958
23. राजस्थान का हृद्य ः संपादित ः 1956
24. राजस्थानी दोहा संग्रह ः संपादित ः 1960
25. राजस्थानी के प्रसिद्ध दोहे-सोरठे: संपादित ः 1961
26. राजस्थानी लोकगीत ः संपादित ः 1961
27. रजवाड़ी लोकगीत ः संपादित ः 1981
28. राजस्थान के सांस्कृतिक लोकगीत: संपादित: 1985
29. जुगल विलास ः संपादित ः 1958
30. वीरवाण ढाढी बादर री बणायो: संपादित ः 1960
31. सांस्कृतिक राजस्थान ः हिन्दी निबंध संग्रह: 1994
32. थ्तवउ चनतकं जव चमवचसम ः आत्मकथा, संपादन- फ्रासेस टेफ्ट, अंग्रेजी: 2000
33. राजस्थान के रीति-रिवाज ः हिन्दी निबंध ः 2002

पुरस्कार-सम्मान:

1. मारवाड़ी साहित्य सम्मेलन, बम्बई, 1960
2. सोवियत लैण्ड नेहरू पुरस्कार-1995 (इण्डो-सोवियत सांस्कृतिक सोसाइटी द्वारा ‘हिन्दू कुश के उस पार’ पुस्तक पर भारत की सूचना एवं प्रसारण मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के कर-कमलों द्वारा।)
3. विशिष्ट साहित्य सम्मान-1972 (राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर द्वारा)
4. राजस्थान रत्न - 1976 (राजस्थान भाषा प्रचारिणी सभा, अजमेर द्वारा)
5. दीपचंद नाहटा पुरस्कार-1977 (राजस्थानी रत्नाकर, दिल्ली द्वारा)
6. सोवियत लैण्ड नेहरू पुरस्कार-1976 (यूएसएसआर सरकार द्वारा रूसी कहानियों के अनुवाद ‘गजबण’ पर भारत के उपराष्ट्रपति हिदायत उल्ला खान के कर-कमलों द्वारा)
7. झेवरचंद मेघाणी स्वर्ण पुरस्कार-1979 (लोक संस्कृति शोध संस्थान, चूरू द्वारा अहमदाबाद में ‘बगड़ावत देवनारायण महागाथा’ पर)
8. राणा कुम्भा पुरस्कार-1982 (महाराणा मेवाड़ फाउण्डेशन, उदयपुर के तत्वावधान में महाराणा भगवतीसिंह जी के कर-कमलों द्वारा)
9. पद्मश्री-1984 (भारत सरकार द्वारा राजस्थानी साहित्य और संस्कृति के विशिष्ट योगदान पर)
10. साहित्य महोपाध्याय उपाधि-1988 (साहित्य सम्मेलन, प्रयाग द्वारा)
11. नाहर पुरस्कार-1992 (बम्बई)
12. लखोटिया पुरस्कार-1993 (रामनिवास आशारानी लखोटिया ट्रस्ट, नई दिल्ली द्वारा राजस्थानी साहित्य में योगदान पर)
13. सरस्वती पुरस्कार-2001 (एनएमकेआरयू काॅलेज, बैंगलोर द्वारा समग्र लेखन पर)
14. डाॅक्टर आॅफ लिटरेचर-2002 (कोटा खुला विश्वविद्यालय, कोटा द्वारा)
15. महाकवि पृथ्वीराज राठौड़ पुरस्कार-2003 (राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर द्वारा राजस्थानी साहित्य के समग्र योगदान पर)
16. गोइन्का राजस्थानी साहित्य सारस्वत सम्माना-2005 (कमला गोइन्का फाउण्डेशन, मुम्बई द्वारा राजस्थानाी साहित्य में समग्र योगदान पर)
17. राजस्थान रत्न-2012 (राजस्थान सरकार द्वारा साहित्यिक योगदान हेतु)


मायड़ भासा रा संस्कार जरूरी: विनोद सारस्वत



भासा बरतता तौ सदां पण कोरणी कद सीखी?
पढी हिंदी पण मायड़ भासा तौ रूं-रूं में बस्यौड़ी ही। कविता सूं बाळपण सूं लगाव रैयौ। राजस्थानी कविता सीधी हीयै में ढूकती। बाळपण में कानदानजी कल्पित री कविता ‘उठण दै हबीड़ौ बेली बीड़ौ’ जबरी लागती। जदकै उण बगत रा हिंदी गाणां रा बोल पल्लै नीं पड़ता। अमिताभ बच्चन री उण बगत री सुपर हिट फिल्म ‘डॉन’ रौ अेक गीत खाईके पान बनारस वाळा रै खाईके नैं म्हैं खाई ही समझतौ। इण रौ अरथ खावण सूं है औ म्हनै घणा बरस पछै ठाह पड़यौ। सन् 1982 रै आसै-पासै जद म्हैं आठवीं क्लास में पढतौ उण बगत मायड़ भासा राजस्थानी री पत्रिका ‘माणक’ नोखा रै बस स्टैंड माथलै बुक स्टॉल माथै मिलती। पैली निजर में ही
‘माणक’ म्हारी पसंद बणगी। उण में अेक थंब आवतौ ‘पत्र-मित्रता’। उण में दो बार म्हारा फोटू छप्या अर म्हैं भी छोटा-मोटा कागद-पतर अर चुटकला लिखणां सरू कर दीन्हा। ‘माणक’ रौ अेक-अेक आखर बांच्या बिना नीं रैंवतौ। इण भांत पैलीपौत मायड़ भासा री बांच सूं सैंध हुयी अर हिवड़ै में हेत रौ समंद हबोळा लेवण ढूकग्यौ। इण पछै सन् 1984 में मैट्रिक पछै आसाम रै जोरहाट री जेबी कॉलेज में आगै री पढाई करी। पढाई सूं बेसी मन पढण-लिखण में रैंवतौ। नित रा अेक गेड़ौ बुक स्टॉल माथै लागतौ अर जकी किताब दाय आयगी उणनै खरीद लेवतौ। इण पछै अन्नारामजी सुदामा रा राजस्थानी उपन्यास ‘मैकती काया मुळकती धरती’, ‘मैवे रा रूंख’, ‘घर-संसार’ पढ्या। राजस्थानी में ‘माणक’ अर हिंदी में ‘जनसत्ता’ म्हैं नैमसर पढतौ। सन् 1987 में म्हैं 15 दिन खातर मद्रास गयौ तौ वठैई म्हनैं ‘माणक’ मिलगी। माणक रै उणी अंक में म्हारा चुटकला छप्या। म्हारी अेक पेवटी हुवती जिण में म्हारा करेड़ा लीक-लकोळियां नै संभाळनै राखतौ। अेक दिन पिताश्री री निजरां उण माथै पड़गी। वै म्हनै तौ कीं नी कैयौ पण म्हारै काकै रा बेटा भाई बिरजू भाई नै कैयौ कै औ तौ इण ऊंधै मारग माथै चाल रैयौ है। म्हनैं रीस आई तौ म्हैं वै कागदिया बाळ न्हाख्या। इण पछै पढाई रै सागै पत्रकारिता में डिप्लोमौ कर्यौ। वीं बगत सन् 1989 में आसाम सूं हिंदी दैनिक ‘पूर्वांचल प्रहरी’ सरू हुयौ, जिणमें म्हनैं जिला संवाददाता सरूप कांम करण रौ मौकौ मिलग्यौ। असमिया भासा माथै ई म्हारी पकड़ सांवठी हुयगी। असमिया साहित्य अर पत्र-पत्रिकावां पढण लागग्यौ। अठीनै आसाम में अल्फा रा उग्रवादी आंदोलन दिनूंदिन आपरी गति पकडै़ हौ। वीं बगत ‘माणक’ में अेक लांबौ लेख लिख्यौ ‘असम में आतंक री आग’, अेक फीचर एजेंसी रै जोग वीं बगत भारत रा 20-30 हिंदी अखबारां में म्हारौ अेक और लेख छप्यौ। ‘अल्फा जेवीपी के नक्शेकदम पर’। सन् 1990 में आसाम में राष्ट्रपति शासन लागग्यौ। उणी दिन ‘पूर्वांचल प्रहरी’ रै संपादकीय पेज में ‘आसाम में राष्ट्रपति शासन खतरे की घंटी’ छप्यौ। इणरै केई दिनां पछै ‘आॅपरेशन बजरंग अर अल्फा’ नांव सूं अेक और बडौ लेख ‘पूर्वाचल प्रहरी’ रै संपादकीय पेज माथै छप्यौ। 
‘मायड़ रो हेलो’ रै मारफत आप कद ऊभा हुया? 
अेक बाप रौ मन चावतौ कै बेटौ वांरै काम धंधै नै संभाळै। पत्रकारिता रै इण काम में वै जोखिम मानता। सो, वां म्हारी बीकानेर री टिकट कटायनै अेक आॅटो पार्टस री दुकान खोलायनै बैठाय दीन्हौ। असम आंदोलन री छाप म्हारै हिवड़ै में अेकदम रमगी। असमिया भासा में इत्ता दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक देखतौ अर मायड़ भासा मे फगत अेक ‘माणक’, उणरी ई अबै गाडी चीलां सूं उतरण ढूकगी ही। मायड़ भासा री पीड़ देखनै बीकानेर सूं सन् 1993 में अखबार निकाळण री तेवड़ करी। केई बार टाईटल दिल्ली भेज्या। पण मिल्या कोनीं। छेवट अेकदिन आरएनआई रौ वौ मूंघौ कागद आयग्यौ, जिणमें ‘मायड़ रो हेलो’ नांव रौ टाईटल अलाॅट हुयौ हौ। इणभांत सन् 1994 में ‘मायड़ रो हेलो’ सरू हुय सक्यौ। कन्हैयालालजी सेठिया रौ बधाई संदेश आयौ, जिणमें वां आपरी पोथी ‘मायड़ रो हेला’े म्हनै भेजी। इणसूं पैली म्हनै औ ध्यांन कोनी हौ कै कन्हैयालालजी सेठिया री इण नांव सूं कोई पोथी छप्यौड़ी है। इण पछै तौ लठ कड़ाकड़ घर फूंकनै तमासौ देखण रौ काम ‘मायड़ रो हेलो’ चाल पड़्यौ। जवानी रौ जोस अर हूंस रैयी, जित्त्ै गिरतां-पड़तां-आखड़तां इणरौ निभाव करतौ रैयौ। पण भुवाजी बारकर फिरण लागगी। घर-गृहस्थी री जिम्मदारियां ओळै-दोळै घूमण लागगी। टाबर बडा हुवण लागग्या तौ मन मारनै अखबार रौ कांम बंद करणौ पड़्यौ।  
कैड़ा तजरबा रैया?
अखबार रा तजरबा घणां ई रैया। मोर थापणियां तौ घणां ई मिल्या पण इण मोरां में पड़्या घावां नै पंपोळणणियौ कोई कोनीं मिल्यौ। 
किणी संपादक नै जे औ बूझीजै कै वौ रचनाकार सूं छापै री मांग मुजब लिखवाय सकै कै?
आज रै इण व्यावसायिक जुग में मांग मुजब लिखवावणौ कोई अबखौ कांम कोनीं। राजस्थानी नै टाळनै दूजी सगळी भासावां में ओ प्रयोग घणै ठरकै रै सागै चाल रैयौ है। जिकौ पीसा देयसी वौ पिसाई तौ आपरै मत्तै करवायसी ई। 
केई छद्म नांवां सूं ई मांग-मुजब लिखणौ पड़तौ हुयसी?
आ कोई नवादी बात कोनीं। जठै सिंगलमेन आर्मी संपादक हुवै उठै घणी बार छद्म नांव सूं लिखणौ पड़ै। मांग अर मांग रै परबार ई माल बेचणौ पड़ै। कागद तौ काळा करणां ई पड़ै, बिना भाखर छापौ कीकर छपै? बैलै नांव सूं बेगार ही चोखी, विज्ञापन नीं मिलै तौ मुफ्त रा विज्ञापन भी फिलर रै सरूप छापणां पड़ै।
आज जद राजस्थानी छापां कांनी देखौ तद के लागै? 
राजस्थानी में छापां री कमी घणी ही अखरै। अखबार नै जे चलावणौ चावै तौ वै उद्योगपति ई चला सकै। समूची व्यावसायिक योजना रै सागै कोई व्यापारी आ खेचळ करै तौ राजस्थानी अखबार भी चाल सकै। पण औ जोखौ लेवण री हीम्मत आज तकात कुणई कोनीं करी। म्हारै जिस्सा लोग म्हारै टाळनै दूजा लोग, जे आ हूंस अर हीम्मत राखै तौ अखबार निकळ सकै अर चाल सकै। म्हैं भ्ई अेकर फेरूं आ हीम्मत करसूं। 
आधुनिक लेखन नै कियां परखौ?
आधुनिक राजस्थानी लेखन री हालत घणी माड़ी है। राजस्थानी में साहित्य सिरजण तौ लगौलग हुवै है पण इण में पाठकां रौ जाबक ई तोड़ौ है। इण खातर जरूरी है राजस्थानी में केई छापा निकळै। इणरै परबार आज इलैक्ट्रोनिक मीडिया रौ जमानौ है, राजस्थानी भासा रौ आपरौ चैनल आज री ताती जरुत है। लोगां में मायड़ भासा राजस्थानी री हूंस जगावै। आज च्यारूं कांनी सून बापर्योड़ी है। इण सून अर मून नै तोड़ण सारू डाढा जतन करणा पड़सी। हरेक रै मन में मायड़ भासा री पीड़ अर हेत कीकर संचरै, इण माथै विचार घणौ जरूरी है। जद ई इण आज रै लेखन री सार्थकता है। बाकी 200-500 पड़तां आपसरी में अेक-दूजै री पढलै, समीक्षा करलै अर पुरस्कार लेयनै मोदीज जावै। इणसूं भासा अर साहित्य रौ कीं भलौ नीं हुय सकै। 
मानता विहूणी भासा में लिखारौ लिखै, इणनै के समझौ?
मानता विहूणी भासा में लिखणौ, लखदाद है वां लिखारां नै जका इण भासा में लिखै। भासा री मानता ताती जरुत है। मानता मिल्यां सूं  केई नवा मारग खुलसी। आज राज जिण भासा नै मानै कोनीं अर पाठक है कोनीं, फेर ई लिखणौ नीं छोडणौ, भासा नै बचावण रौ अेक लूंठौ जतन कैयीज सकै। आज री जरुत ई है कै सांस्कृतिक संक्रमण रै दौर में आपणी भासा नै बचावणी। पीढी-पीढी पीर जागै, इणी भांत राजस्थानी में भी लिखारां री नवी फौज आवती रैवणी चाहीजै। बडेरां नै अेक दिन जावणौ ई जावणौ पण आवणवाळी पीढी नै भासा साहित्य रा संस्कार मिलणा ई चाहीजै। राजस्थानी में लगौलग साहित्य सिरजण इण बात रौ प्रमाण है कै औजूं अे सीर-संस्कार चूक्या कोनीं। 
केई लोग तोपधारी बणणै राजस्थानी में आवै, तपधारी नीं बणणौ चावै? वांरी ओपमा कैड़ी? 
हरेक खेतर में तोपधारी अर तपधारी हुवता आया है ,राजस्थानी साहित्य ई इणसूं अछूतौ कोनीं। जिण भांत दूजी ठौड़ अै दोवूं ई चालै तौ राजस्थानी में भी कांई अड़कांस है? हरेक री आपरी हटोटी हुवै अर वै उणी मत्तै कांम करै। कोई तोपधारी बणनै आप तिर जावै तौ दूजी कांनी तपधारी आपरै तप पांण भासा साहित्य नै तार देवै। तोपधारी तौ पांणी रै ऊपरला वै बुलबुला है, जका अेकर बुलबुलावै अर पछै स्यांत हुय जावै। 
खासकर युवा लिखारां पांण राजस्थानी री बात करां, तौ आप के कैयसौ? 
आज रा युवा लिखारा ई कालै रा भाग्य विधाता बणसी। राजस्थानी री समूळी हेमांणी नै बंचानै राखण री जिम्मेदारी इणांरै कांधा माथै ई है। जूनी रीत-परंपरावां नै आज रै ढंगढाळै में ढाळनै परोटणी युवा लिखारां रै साम्हीं अेक लूंठी चुनौती है। मन री पीड़ अर हूंस नै अेकाकार करनै धक्कीनै बधणौ पड़सी। भासा नै ई हथियार बणायनै आवण वाळी अबखायां सूं लड़णौ पड़सी। निमळाई री जूंनी रीत नै तोड़नै कमठाई सूं नवा पगलिया नापणां पड़सी। 
आपरी कीं योजनावां? 
म्हारी इणी योजना रै पेटे म्हैं ‘मायड़ रो हेलो’ नै पाछौ सरू करण री तेवड़ करी है। आज अेक-अेक घर सूं मायड़ भासा टूट रैयी है। नवी पीढी आपरै सीर-संस्कारां सूं चूक रैयी है। आज मान्यता सूं बडौ कांम भासा नै बचावण रौ है। देस अर परदेस में नवी सरकार बणी है, जिण सूं अेक आस जागी है कै राजस्थानी नै बैगी ही मानता मिलसी। नींतर अखबार रै माध्यम सूं अेक नवौ आंदोलन खड़्यौ करसां।
संदेश?
म्हैं सगळा राजस्थानी लोगां सूं आ ही अरज करणी चावूं कै थे सौ-कीं भूलजौ पण आपणी मायड़ भासा नै कदैई मत्ती भूलजौ। आपरा नान्हा-नान्हा टाबर किणी परायै भासा माध्यम सूं पढै। पण आधुनिकता री आंधी दौड़ में वांनै मायड़ भासा सूं आंतरै मती करीजौ। वांनै घर में मायड़ भासा रा संस्कार जरूर दीजौ।



म्हारौ ध्येय के राजस्थानी में चोखी चीज आवै : चेतन स्वामी


बंतळ-


राजस्थानी भासा रा नामी कथाकार, कवि, संपादक, अनुवादक डाॅ. चेतन स्वामी आपरी न्यारी-निकेवळी पिछांण राखै। वांसूं युवा साहित्यकार दुलाराम सहारण री करीजी बंतळ अठै दीरीजै।

आपरी रचाव जातरा कठै सूं सरू हुयी?
टाबरपणै सूं ई पढण री बांण ही। छठी-सातवीं में पढतौ तद ई साहित्य बांचण लागग्यौ। आ नीं के आ फगत म्हारी बांण ही, वीं बगत आ सगळां री रुचि ही। क्यूंकै मंनोरंजन रौ औ ई अेक साधन हौ। टीवी जुग नीं आयौ हौ। म्हारै वीं पढाव में बेसी किस्सा अर कहाणी ई हुवता। आगै चालनै म्हैं पुस्तकां रै ब्यौपार सूं जुड़îौ। च्यारूंमेर किताबां खिंडी रैवती।  इणी कारणै साहित्य और बेसी पढीजौ। वीं बगत ई ‘मरुवाणी’ अर ‘ओळमें’ रा अंक साम्हीं आया। वांनै कौतुहल सूं बांच्या। पण वौ ई कौतुहल कद जरूरत बणग्यौ, ठाह ई नीं लाग्यौ। आपणी बात, आपणी बात में लिखेड़ी हुवती। 
म्हारौ बडभाग औ ई रैयौ के बालवय में ई किशोर कल्पनांकांत सूं मिलणौ हुयौ। वै दिव्य अर महान पुरख भांत लाग्या। वांसूं मिलनै आयां पछै लाग्यौ जांणै देवता रा दरसण करनै आयौ हुवूं। वै सोळह-सतरह बरस रै टाबर नै ई ‘आप’ कैयनै बतळावता। बरौबर बैठावता। जबरौ आदर, सतकार अर अपणापौ देंवता। अभिभूत हुयौ। पछै तौ वांरी सोवणी हैडंराइटिंग में कागद ई आवण लागग्या। पछै बीजै साहित्यकारां सूं ई मिलणौ हुयौ। कथाकार बैजनाथजी पंवार सूं ई मिल्यौ। वांरी सगळी कहाणी लगैटगै याद ही। कथाकार नृसिंह राजपुरोहित सूं ई जुड़ाव हुयौ। इणी बिचाळै चोखी बात ही के श्रीडूंगरगढ रौ पुस्तकालय सिमरध हौ। वठै श्याम महर्षि रौ ई सागौ मिल्यौ। बीस साल रौ हुयौ तद तांणी तौ ‘राजस्थली’ पत्रिका रौ कांम देखण लागग्यौ। 
राजस्थानी साहित्य नै किण भांत देख्यौ?
आज लोग चावै बियां कांम करै। पण वीं बगत अेक लय ही। नवी कविता में तेजसिंह जोधा जैड़ा लोग जबरौ कांम करै हा। वठैई राजस्थानी कहाणी आपणी परम्परा में मंथर गति सूं चालै ही, तौ तीजै पासै केई जणां शोध में ई लागेड़ा हा। शोध, अनुसंधान री ‘मरुभारती’, ‘वरदा’, ‘विश्वभंरा’ आद उच्च स्तरीय पत्रिकावां निसरती। आज देखां तद लागै के कित्ता मेहनती हा वै मिनख। श्री अगरचंद नाहटा, कन्हैयालाल सहल नै आदर समेत चेतै करां, बित्ताई कम है।


आपरी बात करां, रचाव छपाव कांनी कियां बध्यौ?
सन् 1978 में पैली रचना भांत कहाणी ‘बान री डळी’ मूलचंद प्रांणेश रै संपादन में छपणवाळी ‘वैचारिकी’ पत्रिका में छपी। ‘जलतेदीप’ छापै में ई राजस्थानी रौ पानौ हौ, वठैई छप्यौ। अकादमी री पत्रिका ‘जागती जोत’ में ई रचना आवती। आकाशवाणी सूं ई लगाव हुयग्यौ। आगै चालनै ‘सवाल’, ‘चितार’ कविता संग्रै अर ‘आंगणै बिचाळै भींता’, ‘किस्तूरी मिरग’ कहाणी संग्रै आयां। ‘इंदरधनख’ निबंध संग्रै ई है राजस्थानी में। ‘कलिकथा वाया बायपास’, ‘म्हारौ दागिस्तान’, ‘सुपना मोरपांखी’ अनुवाद री साख भरती रचनावां छपी। ‘आखर’, ‘रचाव’, ‘निजराणो’ संपादित पोथ्यां है। सगळै रचाव साथै राजस्थानी सारू कीं कमीटमेंट हौ। इण भासा री साख कियां सवाई हुवै। आ बात म्हारै काळजै में ही अर इयां कैवूं के आज ई इण बात साथै की लिखूं, जीवूं। 
संपादन री जोत पेटै ई आपरौ जिकर करीजै?
सन् 1989 में अकादमी री पत्रिका ‘जागती जोत’ रा केई अंक संपादित करण रौ मौकौ मिल्यौ। वीं बगत म्हारै कन्नै कीं अकादमिक योग्यता ई नीं ही। दसवीं-बारहवीं हौ। चालतै बगत में लोगां खिल्ली ई उडायी। संजोग हौ के म्हैं मिणत करी अर लोगां नै पछै मजबूर हुयनै बडम करणी पड़ी। लगौलग हूंस नै इणरौ जस जावै।
‘कथाराज’ ई संपादित करी ही नीं आप?
हिन्दी में कहाणी राजस्थानी सूं पैली लिखण लागग्यौ हौ। इतवारी पत्रिका, मधुमती में छपतौ। म्हारौ हिन्दी में पठन ई बेसी हौ। ‘कथाराज’ हिन्दी री मासिक कथा पत्रिका ही। सालेक चाली। अेक खेत बेचण सूं आयेड़ी कन्नै जकी दमड़ी ही वा निमड़ग्यी अर ‘कथाराज’ ई बंद हुयग्यी।
आप कथा री बात बरियां-बरियां करौ, तद के आपरी पैली पोथी कविता री आवै?
साची बात है। राजस्थानी कविता पोथी ‘सवाल’ 1982 में छपी। वीं सूं पैलां राजिया रै दूहा रौ संपादन ई करîौ। पैलै अर दूजै कहाणी संग्रै बिचाळै ई खासौ लाम्बौ बगत है। खुद रै लिखेड़ै नै छपावण रै मामलै में आळसी हूं। दूजां रै पेटै उच्छाह जरूर है। म्हारौ ध्येय रैवै के राजस्थानी में चोखी चीज कियां आवै। म्हैं इणी पेटै केई भांत रा प्रयोग करण री चेस्टा करी। म्हैं कविता, कहाणी, निबंध आद सगळी विधावां में लिख्यौ। अेक-आध नाटक ई लिख्या। पण विधा गत बात करूं तद कहाणी सै सूं चोखी लागै। 
हां, बिचाळै ई बतावूं के म्हारै साथै सै सूं बडी बात आ रैयी- म्हानै लेखक मींत जबरा मिल्या। वां साथै सकारात्मक बंतळ रैयी। सगळी बातां बिचाळै म्हैं मानूं के ऊरमा हुवै, पण वींनै बरतनै लिखीजै तद बात बणै। वीं लिखाव सारू चोखी पत्रिका जरूरी हुवै। संचार, संचेतना रौ प्रसार जरूरी हुवै। राजस्थानी रौ दुरभाग के पत्रिकावां री कमी। कीं ही जकी ई सबल हाथां में नीं रैयी। च्यार-पांच ई संपादक चेतै आवै जकां कमींटमेंट साथै कांम करîौ। बीजां तौ कौतुहल साथै ई संपादन करîौ। 
अनुवाद छेतर रै कांम नै कियां देखौ?
मजबूरी बस कांम टोरîौ। संपादन करतौ तद दूजी भासा री जबरी रचना पढती बगत लागतौ के आ रचना आपणी भासा में ई आवणी चाहीजै। म्हैं पूरी खेचळ करी। अनुवाद कियां करीजै, केई आलेख लिख्या। करीजेड़ै अनुवाद में राजस्थानी री आपरी खुशबू हुवै। फगत गिणती बधावण सारू अनुवाद नीं हुवै। सीपी देवल रा अनुवाद जबरा है। वौ आदमी आपरी निजता ई नीं खोवै अर नीं आगलै री गमण देवै। म्हारी खुद री ई चेस्टा ई आ रैयी। आ ई रैवणी चाहीजै।

कवि बाजण री हूंस ही : भाटी


बंतळ-
 
राजस्थानी भासा रा आधुनिक कवि जठै नवी कविता री अतुकांत पुट माथै जोर देयनै कविता री धारा बदळी, वठैई केई कवि अैड़ाई है जका नवी कविता साथै डिंगळ रौ लगाव जोड़तां थकां परंपरा अर आधुनिकता रौ रस संचरायौ। अैड़ाई अेक बाजींदा कवि है- डाॅ. आईदानसिंह भाटी। अठै वांसूं युवा साहित्यकार दुलाराम सहारण री करीजी बंतळ दीरीजै।

राजस्थानी कविता रै आंगणै आपरा पगलिया किण भांत मंडया?
म्हारी सरुवाती साहित्य जातरा में डिंगल कविता सूं जुड़ाव व्हियौ। म्हनै लागतौ के कविता अमरता री निसांणी है जिका कवि संसार में नीं है वांरी कवितावां अजैई लोग सुणै अर गुणै। बालपणै ई माटसाब दुर्गादानजी अेक कविता रटायनै मंच माथै ऊभौ कर दीन्हौ। लोगां साबासी दीन्ही तौ म्हैं कवितावां रटण लागौ। छठी के सातवीं क्लास रै आसपास अेकक कविता लिखी। स्यात् पैली  ‘म्हैं सुणियौ कान लगा जद, झूंपङियौ कै औरां नै’ ही। इणी गत ‘गीता रौ ग्यान’ अर दूजी इतिहासां रै आख्यानां माथै कवितावां लिखी, जिण में अेक ‘धाप धाप नै कै दौ धोरां’ कविता ई है। म्हनै सेठियाजी री कविता ‘पातळ अर पीथल’ सागै रामधारीसिंह री कविता ‘श्री कृष्ण का दूत कार्य’ कंठस्थ ही। इण भांत कविता बाळपणै सूं म्हारै साथै ही।
म्हारी ‘हंसतोड़ै होठां रौ साच’ कविता ‘हेलो’ पत्रिका में पैली छपी। म्हारा बेली-मींत म्हारी कविता नै सरावता। म्हैं गोष्टियां में सुणावता। कवि बाजण री हूंस ही। इण हूंस म्हनै कवि बणा दीन्हौ। म्हनै श्रोतावां पाठकां रौ लाड  मिळियौ। 
परंपरागत राजस्थानी कविता बिच्चै लोकराग थरपणै कांनी बधती बगत मन में कांई कथीजै हौ?
नवी कविता रै दायरै में सत्यप्रकास जोशी, तेजसिंह जोधा आद केई कवियां लय पकड़ी। इण बात नै आपां आगै इयां बधायसा के भाव आपरी भाषा खुद लेयनै आवै। म्है म्हारी भाषा में ई कविता लिखी, किणी दूजै री नकल नीं कीन्ही। हां, म्है हरीश भादाणी, नारायण सिंह भाटी, सत्यप्रकाश जोशी रै भावां सूं प्रभावित व्हियौ।
खुद री कविता नै नवी धारा बिच्चै कठै देखौ?
म्हनै कविता में छंद लुभावतौ। पछै म्है मुक्त छंद में ई कविता लिखी। वै चावी व्ही। मंचां सारु कीं गजलां ई लिखी। म्हनै पक्कौ विश्वास है कै शब्द अमर व्है। हां, आ बात न्यारी है के अमरता जैड़ी बातां तकनीक रै इण जुग में बेकार है। किताबाँ जरूर बचेला अर कदै न कदै, कोई न कोई समानधर्मा उण नै मिळैला। भवभूति री दांई म्हैं ई सोचूं। कीं सपना तौ देखणां ई चाईजै। इणसूं जूंण फूठरी गुजरै।
कवि साथै-साथै आप काॅलेज शिक्षा सूं ई जुड़îा रैया। वठै रा तजरबा? 
म्हनै अेक शिक्षक रै रूप में घणोई जस मिळियौ। म्हारै विद्यार्थियां सूं मिलणवाळौ मांन म्हारी पूंजी है। 
बीजा केई कांम ई ओढ्या?
साक्षरता में लेखक अर सन्दर्भ व्यक्ति रै रूप में काम कीन्हौ। मानीता सत्यदेवजी बारहठ म्हनै साक्षरता सूं जोडि़यौ। नेशनल बुक ट्रस्ट री कार्यशालावां में ई भागीदारी निभाई। नेशनल बुक ट्रस्ट म्हारी किताब ई छापी।
राजस्थानी आलोचना नै किण भांत निरखौ?
आज री राजस्थानी आलोचना सिलसिलेवार अर सिस्टेमैटिक कोनीं। आथूणां पैमानां लेयनै जकी कूंत करीजै वा राजस्थानी साहित्य माथै खरी नीं बैठै, क्यूंकै आपणी भासा री रळक अर लकब न्यारी है। आपणी भासा फगत सांस्कृतिक दरसाव ई नीं राखै, जीवण री डूंगाई ई राखै। इणी कारणै वींरै साहित्य री कूंत करती बगत कीं पैमानां खुद रा लेवणां पड़सी। गीत अर मंचीय कविता माथै बरसां पैलां कीं टिप्पणियां करीजी ही। वींनै अजै तांणी आलोचना रै नांव माथै ठरड़ीजै, जद के वौ आलोचना रौ हिस्सौ कोनीं। आज रा वाजिंदा आलोचक पोथी-परख नै ई आलोचना रौ तमगौ देयनै ढोल बजावै। हकीकत में पोथी-परख ई आलोचना नीं हुया करै। हां, कीं बीच-बिचाळै ‘दौर अर दायरौ’ जसजोग आयौ। पण वीं बगत रौ मोल बेसी नीं कूंतीजौ। टाॅप फोर, टाॅप टेन आद टीवी री भासा आपणी आलोचना री भासा कोनीं। आपणौ छंद है अर वींरौ रेफरेंस आवणौ चाहीजै। आधुनिक राजस्थानी साहित्य रौ मूल्यांकन राजस्थानी मांयली सब्दावली सूं ई हुय सकै है। आपणै अठै जकौ जूंनौ साहित्य है, वींरौ हाल तांणी आलोचनात्मक मूल्यांकन नीं हुयौ। वींरौ विवेचनात्मक अर इतियासू मूल्यांकन ई हुयौ है। वीं मांयली धार अर संवेदणां री कूंत नीं हुयी। आधुनिक ढाळै कविता, कहाणी, उपन्यास माथै तौ बात कमती-बेसी करीजी, पण बीजा हिस्सा कठैई गमग्या। आलोचना में हाल खूब कांम री जरुत है।
राजस्थानी री नवी पीढी कांनी देखौ तद?
राजस्थानी में कविता री अक पूरी री पूरी युवा पीढी साम्हीं ह। ‘मंडाण’ कविता री पोथी जिकी नीरज दइया सम्पादित करी है, वा विस्वास जगावै। थे खुद इणी विस्वासू पीढी रा दस्तखत हौ।
अजै तांणी पोथी भांत?
कविता री च्यार किताबां ‘हंसतोड़ा होठां रौ साच’, ‘रात कसूम्बल’, ‘आंख हींयै रा हरियल सपना’ अर ‘खोल पांख नै खोल चिङकली’। हिंदी में तीन किताबां ‘थार की गौरव गाथाएं’, ‘शौर्य-पथ’ अर ‘समकालीन साहित्य और आलोचना’ रै नांव सूं आई है।
इनांम-इकरांम ई खासा मिल्या?
मांन-सनमान लेखक नै टेमसर मिळ जावणा चाइजै। म्हैं तौ प्रतिरोधी लेखक री जूंण जियौ। इण सारू मांन-सनमांन री परवाह नीं कीन्ही। हां, ऊमर रै साठवैं बरस में अकादमियां म्हारी षष्टिपूर्ति कर दीन्ही। बियां माळावां पैरणी तौ चैखी ईज लागै।
कीं संदेस?
मां-मायङभोम अर मातभासा नै  सै सूं सिरै मानौ।



सरूवात तौ है पण अंत कोनीं : बादळ



बंतळ-
राजस्थानी भासा रा नामी लिखारा रायसिंहनगर वासींदा श्री मंगत बादळ दंदफंद सूं आंतरै आपरै लगौलग लेखन कारणै बीजी भांत ओळखीजै। वांरी खूब पोथ्यां है। अठ वांसूं युवा साहित्यकार दुलाराम सहारण री करीजी बंतळ दीरीजै।

साहित्य री जातरा कांनी पगलिया मांडती बगत दिमाग में कांई के हौ?
साहित्य री आ जातरा म्हैं कोई सोच-समझनै सरू कोनीं करी। जद आखर ग्यांन हुयौ तौ पढणै री लगन लागी। जैड़ी ई पोथी मिलती पढ लेवतौ। कदै मन में विचार आवतौ के म्हैं ई लिखनै देखूं, लिख देवतौ। औ तौ कदै सोच्यौ ई कोनीं हौ के इण भांत लिख्यां कोई लेखक हुय जावै। लिख्यां अेक आनंद री अनुभूति हुवती इण कारण लिख लेवतौ। म्हारौ विचार है साहित्य लेखन री सरूवात भावना सूं हुवै। चिंतण तौ भावनावां रै लारै-लारै आवै। होळै-होळै म्हैं स्वांतः सुखाय लिखतौ गयौ। लिखेड़ै नै छपणै तांणी भेज्यौ। कदै छप्यौ, कदै पाछौ आयग्यौ। लिखणै-छपणै री प्रक्रिया कीं बधी तौ म्हारै सरीखा केई और साथी मिल्या जद समझ में आई के म्हैं साहित्य री जातरा रौ जातरी बणग्यौ। आज सोचूं इण जातरा री सरूवात तौ है पण अंत कोनीं। मर्यां ई अंत हुवै। जिकौ इण जातरा नै बिचाळै तज देवै, उणरी मौत ई समझौ।
राजस्थानी अर हिंदी में बरौबर लेखन। भासाई खेंचतांण नीं हुवै?
श्रीगंगानगर जिलौ अेकांनी तौ अंतरराष्ट्रीय सींव सूं जुड़ेड़ौ है अर दूजै कांनी पंजाब अर हरियाणा सूं। अठै हिंदी अर राजस्थानी साथै-साथै गुरुमुखी ई धड़ल्लै सूं बोली अर समझी जावै। म्हैं गुरुमुखी में ई व्यंग्य लिख्या है, जिका गुरुमुखी री सिरै पत्रिकावां में छप्या है। म्हारौ सोचणौ है के विसयवस्तु आपरी भासा अर विधा खुद-ब-खुद सोध लेवै। जे आप ईमानदारी सूं लेखन कर्यौ है तौ आपनै खुद री रचना रौ अेक भासा सूं बीजी में अनुवाद करतां घणौ जोर आयसी। आप जिकी भासा में रचना करौ उणरै मुहावरै री जे आपमें पकड़ है तौ भासाई खेंचतांण आप साम्हीं कोनीं आवै। हां! आप जे सोचसौ हिंदी में अर लिखसौ राजस्थानी, गुरुमुखी के किणी बीजी भासा में, तौ भासाई खेंचतांण हुयसी। थोड़ै अभ्यास री बात है। राजस्थानी रा घणकरा लेखक साथै-साथै हिंदी में ई लिखै।
साहित्य री लगैटगै विधावां में आप लिख्यौ। घणचावी विधा कुणसी है?
म्हैं आप साम्हीं पैली ई अरज करी ही के विसयवस्तु आपरी विधा खुद ढूंढ लेवै। जियां पांणी आपरी ढलांण खुद-ब-खुद सोध लेवै। जिकै बगत म्हैं जैड़ी विधा में लिखूं वा चावी ई लागै। औ सवाल म्हारै सूं केई लोगां बूझ्यौ है। कांई बतावूं? अेक बाप रै केई संतान है। उण सूं बूझां के कुणसौ आछौ लागै तौ वौ कांई बतावै। म्हारौ मन गीत, कविता, कहाणी, व्यंग्य, निबंध आद सगळी विधावां में बरौबर रमै। म्हैं पण खुद नै किणी विधा में पारंगत कोनीं मानूं। अेक बात जरूर है जिकै दिनां कहाणी लिखूं, कविता के निबंध कोनीं लिख सकूं। इणरौ कारण स्यात् औ ईज हुयसी के रचना कोई बीजौ हस्तखेप बरदास्त कोनीं करै।
अजै तांणी राजस्थानी में पोथीगत रचाव?
राजस्थानी में म्हारी पैली पोथी ‘रेत री पुकार’ कविता संग्रै 1988 में छपी। इण पछै 2004 में ‘दसमेस’ महाकाव्य छप्यौ जैड़ौ चर्चित ई हुयौ। हरियाणा पंजाब साहित्य अकादमी इणरौ उल्थौ पंजाबी में ई करवायौ। इण छंदोबद्ध रचना रौ अनुवाद पंजाबी रा जाणीजता रचनाकार गुरमेल मडाहड़ कर्यौ। इण पछै सन् 2008 में ‘मीरां’ प्रबंध काव्य छप्यौ। इणरौ अनुवाद ई पंजाबी भासा में वाल्हा केसराराम कर्यौ है। साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली कांनी सूं अनुवाद कराइजौ है। 2009 में अेक साथै दो पोथ्यां ‘कितणो पाणी’ अर ‘भेड़ अर ऊन रो गणित’ छपी। 2010 में ललित निबंध संग्रै ‘सावण सुरंगो ओसर्यो’ अर 2012 में ‘बात री बात’ आया। ललित निबंध री पोथी ‘हेत री हांती’ बेगी ई। कविता पोथी, गीत पोथी अर आलोचनात्मक आलेखां री पोथी त्यार है।
पुरस्कारां री विगत ई लांबी हुयसी?
अकादमियां कांनी सूं अर संस्थावां कांनी सूं घणां ई मिलग्या पण आदमी धापै कद है? सोचै केई दिन हुयग्या। लोगड़ा भूलग्या दीसै? म्हनै सै सूं पैली हिंदी कविता संग्रै ‘इण मौसम में’ माथै राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर कांनी सूं ‘सुधींद्र पुरस्कार-1992’ मिल्यौ। इण बरस ई कादम्बिनी पत्रिका कांनी सूं व्यंग्य माथै ‘संभावना पुरस्कार’ मिल्यौ। भारतीय साहित्य कला परिषद कांनी सूं ‘गौरीशंकर शर्मा साहित्य सम्मान-2001’ मिल्यौ। 2004 में कनाडा कांनी सूं ‘राजस्थान कैनेडियन एसोसियेसन’ दीरीजौ। सन् 2005 में राजस्थान पत्रिका ‘कर्णधार सम्मान’ दीन्हौ। सन् 2006 में ‘दसमेस’ महाकाव्य माथै राजस्थान साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर ‘सूर्यमल्ल मीसण शिखर पुरस्कार’ दीन्हौ। 2008 में राजस्थान पत्रिका रौ ‘सृजनात्मक साहित्य पुरस्कार’ मिल्यौ। सृजन साहित्य संस्थान, श्रीगंगानगर कांनी सूं 2009 रौ सनमांन मिल्यौ। 2010 में ‘मीरां’ प्रबंध काव्य पर साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली रौ राजस्थानी सारू पुरस्कार मिल्यौ। 
अठै आयनै बतावणौ चावूं के म्हनै कविता, कहाणी, व्यंग्य अर जातरा-विरतांत माथै पुरस्कार मिल्या। अठै आयनै विधा झौड़ निवड़ै।
बीजी भारतीय भासावां बिचाळै राजस्थानी?
बीजी भारतीय भासावां बिचाळै राजस्थानी नै समग्रता सूं देखां तौ घणी जस जोग थिति है। भासाविद् सुनीति कुमार चाटुज्र्या अर कवि रवींद्र नाथ ठाकुर सरीखां इण भासा री जी खोलनै बडम करी है। इणरौ अतीत महान है। विजयदांन देथा बिज्जी सरीखै राजस्थानी लेखकां रै नांव नोबल पुरस्कार तांई नामांकित हुवणौ इण भासा रै गौरव गरिमा नै दरसावै। इण कारणै हरेक राजस्थानी छाती ठोकनै गीरबै सूं सिर ऊंचै करै के म्हारी मायड़भासा राजस्थानी किणी सूं लारै कोनीं।

छंदबद्धता अर छंद मुगती रचनाकार री मनगत रौ झौड़ : शारदा कृष्ण


बंतळ-


राजस्थानी भासा अर वैदिक संस्कृत रौ सगपण मानीजै। संस्कृत अर राजस्थानी दोनुवां में पारंगत कवयित्री शारदा कृष्ण सूं युवा साहित्यकार दुलाराम सहारण री बंतळ करी। अठै वा दीरीजै।

  राजस्थानी अर संस्कृत दोनूं भासावां में आपरौ रमाव है? वैदिक संस्कृत साथै राजस्थानी रै सगपण सूं बात सरू करां तौ?
  आदू भासा संस्कृत अर मायड़भासा राजस्थानी म्हारै अंतस तांणी राची-माची है। औ रमाव टाबरपणै सूं ही भासा अर सबदां रौ मूळ सोधण री अेक हेरावू हूंस रौ प्रतिफळ कैयौ जाय सकै। म्हारी दादी, नानी जितरी बात-कैबत-ओखाणां आपरी बोलीचाली मांय बरत्या करती, म्हैं वांरौ मूळ संस्कृत मांय म्हारै मत्तै सोधती रैवती अर अलेखूं राजस्थानी सबदां रो मूळ संस्कृत मांय सोधनै म्हैं राजी हुय जावती। तद सूं ई जूंनी राजस्थानी अर वैदिक संस्कृत रौ सगपण म्हारै हीयै ढूकतौ गयौ। वैदिक संस्कृत वेदकालीन लोक-भासा ही जिकी आपणी मायड़ मरुभासा रै साव नैड़ी नजीक है।
 
संस्कृत री काळजीत रचनावां रौ आप राजस्थानी मांय उल्थौ ई करयौ। वीं बगत कांई मनगत रैयी?
  राजस्थानी रै रळकै मांय वैदिक संस्कृत रा लोकरंग ठौड़-ठौड़ मुळकै अर आपसरी में अेक सैजोर सांस्कृतिक साम्य ई राखै। कवि कालिदास रै ‘शांकुतलम्’ रै उल्थै बगत अैड़ा केई भाव अर भासा रा साम्य म्हारै साम्हीं आया। राजस्थानी रा केई सबद जिका वेद सूं सीधा इण भासा मांय समाया, वै वैदिक भासा अर संस्कृति सूं राजस्थानी रौ ठायौ-ठरकौ जुड़ाव आपां रै साम्हीं परगटावै। वेद रौ सबद ‘जनिता’ (मायत) राजस्थानी में ‘जणीता’ है। संस्कृत रौ ‘आहिण्ड्यते’ (व्यर्थ भटकना) राजस्थानी मांय ‘हांडतौ फिरै’ बरत्यौ जावै। कृषक-करसौ, अन्तरंगत्वा-आंतरै जायनै, ईदृर्शा-इसौ, उज्झिला-ऊजणनै, अरण्यं-अरणी, अवगुण-औगण, शुन्यं-सूनौ, अवलम्ब्यतै-लूमै, दृश्य-दरसाव, भणति-भणै, विक्लव-बेकळ, दास्यति-देयसी, निश्चित-नचीतौ अर अैड़ा और ई खासा सबद आं दोनूं भासावां रौ साव साम्य परगटावै। संस्कृत रौ सूक्ति-सौंदर्य आपणै अठै री कैबतां मांय सागी भाव परगटै। सहायक क्रिया रै प्रयोग बिना वाक्यार्थ ग्रहण संस्कृत अर राजस्थानी में ई हुवै, हिंदी में नीं। अर नीं ई अंगरेजी में। जियां सः गच्छति (संस्कृत), वौ जावै (राजस्थानी), वह जाता.....?
  सबदावू बदळाव अर अरथ भेद रौ झौड़ रैवै उल्थै में, आप कांई मानौ?
  कोरौ सबदावू बदळाव उल्थै री माटी कर न्हाखै। भाव अर अरथ नै अंगेजतां थकां ई उल्थै में पद अर वाक्य री साम्यता सोधी जाय सकै। सबदावू बदळाव पेटै मूळ लेखक रै भावां री बलि नीं दीरीजणी चााहीजै। वींरौ भाव अर तात्पर्य साव समचै पाठक तांणी पूगावणौ उल्थैकार री मोटी जिम्मेदारी हुवै। सबद अर अरथ रा बिछोवा नीं तौ मूळ में धिक्कै अर नीं उल्थै में।
  कविता ई आपरै रचाव आंगणै हैं? कित्ती पोथ्यां पाठकां रै निजर है?
  म्हारौ मनचायौ व्यसन कविताई ई है। कविता री पोथी छपणौ अर फेर वींरौ बांच्यौ जावणौ कितरौ अबखौ कांम है, थांरै सूं छानौ कोनीं। पण कविता रौ वजूद अभिव्यक्ति अर सिरजणा रै सीगै सै सूं बेसी चाहीजतौ रैवतौ आयौ है, अर रैयसी। मिनख री जूंण-जातरा कविता अर गीत री लय-ताल बिना अधूरी है। राजस्थानी मांय म्हारी अेक पोथी ‘धोरां पसर्यो हेत’ प्रकाशित है।
  कविता री बात करां तौ बीजी भारतीय भासावां री कविता बिचाळै राजस्थानी कविता?
  बीजी भारतीय भासावां री कविता बिचाळै राजस्थानी कविता आपरी सबळी पिछांण राखै। बगत अर काळ री हरेक महतावू, टिकावू अर महान् कविता वा हुवै जिण मांय वीं बगत री समकालीन चिंतावां, अबखाया अर आजादी सूं पैली अर आजादी मिल्यां पछै सिरजण रै सरोकारां री ऊंची-नीची घाटियां अर बदळाव नै अंगेजती थकी आज री प्रगतिसीलता अर जुगबोध सूं जुड़ी थकी है।
 नवी कविता री सरूवात आप कठै सूं मानौ?
  नवी कविता रा आगीवांण गणेशीलाल व्यास उस्ताद, मेघराज मुकुल, कन्हैयालाल सेठिया, चंद्रसिंघ, रेवंतदान, सत्यप्रकाश जोशी अर हरीश भादाणी जैड़ा लोग पैली पांत में गिणीजै। इण धारा री दूजी पीढी मांय तेजसिंह जोधा, मणि मधुकर, सांवर दईया, नंद भारद्वाज, ओंकार पारीक, पारस अरोड़ा, सीपी देवल, प्रेमजी प्रेम, भगवतीलाल व्यास, ज्योतिपुंज, आईदानसिंह भाटी, मोहन आलोक, कृष्ण कल्पित, भंवर भादानी सरीखा कवियां नै गिणाय सकां। तीजी नवी पीढी में राजस्थानी प्रयोगवादी कविता लगौलग रची जाय रैयी है।
छंदबद्ध अर छंदमुगत रौ झौड़ हाल कांई सळटग्यौ? 
छंदबद्धता अर छंद मुगती म्हारी समझ में रचनाकार री मनगत रौ झौड़ है। छांदस कविता ‘मुगती’ में दुख पावै अर मुगत-भाव छंदां में बंधनै बिहूंजै। भावां री ऊपज जठै लयबद्ध हुवै वठै छंदां री जाजम बिछै अर मुगत-चिंतण जठै अनुशासित रागात्मकता अंगेजै वठै मुगत छंद कुंडळी मारै।
विधागत लगाव री बात करां तौ आप सै सूं नैड़ै किण विधा रै?
सिरजण री सगळी विधावां म्हानै रुचै। पण गीत अर कविता सूं म्हारौ मा-जायौ हेत है। बियां म्हैं अनुवाद, संपादन-संकलन रौ कांम ई कर्यौ है।
   आज रौ साहित्य फिरोळां तौ?
  आज रौ साहित्य आज रै समाज रौ दरपण है। समाजू हळगत आछी-माड़ी जिसी ई हुवै साहित्य मांय आवै ई आवै पण आपणौ काव्य-शास्त्र जितरा काव्य-दोख गिणाया है, वां सूं साहित्य नै बचायौ राखणौ साहित्यकार री मोटी जिम्मेदारी है।

भीखै रा दिन भोगनै आगै बध्यौ : नंद भारद्वाज

बंतळ-


राजस्थानी भासा रा लिखारा श्याम गोइन्का प्रवासी रचनाकार हैं। वै चूरू भौम रा सपूत है अर अबार बैंगलूरू रैवै। आप कमला गोइन्का फाउण्डेशन रा मुख्य ट्रस्टी हैं। श्री श्याम गोइन्का सूं युवा साहित्यकार दुलाराम सहारण री करीजी बंतळ अठै दीरीजै।


ठेठ धोरां धरती सूंआपरौ लगाव रैयौ। साहित्य रैआंगणैकियांआय उभा हुया? संखेप में विगत।
आ बात साची है के म्घ्हारौ जलम आथूणै राजस्घ्थान रै रेतीलै धोरां बिच्घ्चै अेक गुमनाम-से गांव में हुयौ, जठै नीं कोई स्घ्कूल-दवाखानौ, नीं डाकखानौ, नीं सघ्क-बीजळी री तौ बात ई कांई, पाणी तकात चार-पांच मील अळगै सूं उूंट माथै पखाल भर नै लायां पार पघ्तौ। नीं कोई आवागमन रौ साधन हौ अर नीं देस-दुनिया बाबत कीं जांणण रौ कोई जरियौ। जद म्घ्हैं पांच बरस री औस्घ्था में पूग्घ्यौ तौ गांव सूं अधकोस अळगी पाघेस रै कस्घ्बै में एक स्घ्कूल जरूर खुलगी ही, जठै म्घ्हारै गांव रा दो अेक टाबर जावणा सरू हुया हा, म्घ्हैं ई असकेल में वांरै साथै जावणौ सरू कर दियौ - कीं पिताजी रौ स्घ्सारौ अर हूंस रही के म्घ्हैं कीं आंक सीख लेवूं तौ वांनै ई आपरी पिंडताई (टीपणौ अर कथा बांचण) में कीं स्घ्सारौ लाग सकै।
आंक सीखण कांनी आ सरूवात ही। इणगत तौ समूचा आंक सीखण तांणी खासा आफळ हुयी हुयसी?
आफळ तौ घणी करणी पघ्ी, पण कीं बाळपणै री जिद अर कीं संजोग रौ साथ बण्घ्यौ रह्यौ। एकर स्घ्कूल पकघ्ीजगी तो इस्घ्सी जरू पकघ्ी के फेर तौ छुडावण री घणी कोसीस करियां ई कोई रै ताबै नीं आई अर संजोग सूं मास्घ्टर लज्घ्जाराम जी सरीखा कीं अैघ शिक्षक ई मिळ्या जिकां पढाई रौ जीवण में कांई मोल हुवै, वौ हीयै में आछी तरै बैठाय दियौ। असल में म्घ्हारा पिताजी आपरै हलकै में आछा गुणी आदमी मानीजता, वां म्घ्हनै घर में रामायण, महाभारत, पुराण, ,पंचांग अर ग्घ्यान-ध्घ्यान री इत्घ्ती बातां म्घ्हारी 
प्राथमिक शिक्षा रै सैंजोघ्ै सिखा-समझाय दीवी के साहित्घ्य सारू गाढौ लगाव स्घ्यात उणी समचै म्घ्हारै सभाव अर संवेदणा रै आंगै उतरग्घ्यौ। 
आपनै इण लगाव रौ कद ठाह लाग्यौ?
जद म्घ्हैं आठवै दरजै तांई री भणाई पूरी कर ली, तौ म्घ्हनै गांव सूं आठ कोस अळगै बाघ्मेर सैर में हाई स्घ्कूल में दाखलौ लेवणौ पड़्यौ। वठै संस्घ्कृत अर हिन्घ्दी पढावण वाळा आछा शिक्षक मिळ्या, जिकां म्घ्हारै कंवळै मन में उण लारली विरासत सूं गाढौ लगाव पैदा कियौ। जद तीन बरस पछै संजोग सूं उठै ई कॉलेज खुलग्घ्यौ तौ म्घ्हारी भणाई पण जारी रही। कॉलेज में हिन्घ्दी रा नांमी विद्वान डॉ शान्तिगोपाल पुरोहित मिळग्घ्या, जिकां हिन्घ्दी कविता अर साहित्घ्य सूं आछौ हेत जगायौ। स्घ्कूल अर कॉलेज में सांस्घ्कृतिक कार्यक्रमां में म्घ्हारी आछी भागीदारी रैवती अर उणरी खास वजै साहित्घ्य सूं लगाव ई रही व्घ्हैला। जद म्घ्हनै कॉलेज में किणी कविता पाठ रै कार्यक्रम में भाग लेवण रौ मौकौ आवतौ तौ कोसीस रैवती के म्घ्हैं म्घ्हारी खुद री रच्घ्योडी कोई कविता के गीत सुणाउं अर इण भांत बी ए पास करण तांई कॉलेज में केई वार म्घ्हारी खुद री कविता ई सुणावण री हूंस राखी। स्घ्यात इणी समचै साहित्घ्य म्घ्हारै सभाव अर जीवण-शैली रौ अंग बणग्घ्यौ।
आप कांई लगैटगै हरेक रचनाकार कविता री मारफत रचाव कांनी आवै। आप कवि रूप में ई जस कमायौ अर गद्यकार रूप में ई। आ कियां?
बाकी साहित्घ्य सूं गाढौ अर संजीदा लगाव तौ एम ए री पढाई खातर जयपुर आयां ई पूरसल बण्घ्यौ। अठैराजस्घ्थान वि वि में वां दिनां जिका लोग हा, वै खुद साहित्घ्य में आपरी आछी पिछांण राखण वाळा लोग हा - डॉ सत्घ्येन्घ्द्र, डॉ विश्घ्वंभरनाथ उपाध्घ्याय, हीरालाल माहेश्घ्वरी, शंभूसिंह मनोहर, नरेन्घ्द्र जी भानावत, जिकां म्घ्हनै राजस्घ्थानी साहित्घ्य सूं गाढौ परिचै करायौ, जिणरी अेक वजै आ ही के एम ए में डिंगळ म्घ्हारौ स्घ्पेसल विषय हौ। राजस्घ्थानी अर हिन्घ्दी में गीत-कवितावां लिखणी बी ए पास करतां सरू व्घ्हेगी ही, अर एम ए रै दरम्घ्यांन जद पंत-प्रसाद-निराला रै साथै राजस्घ्थानी रा नांमी कवियां नै पढण रौ मौकौ मिळियौ तो कविता रै बहुआयामी विस्घ्तार सूं म्घ्हारी ओळख बधी। अर कविता ई कांई साहित्घ्य री दूजी विधावां सूं गैरी पिछांण बणी, उण विरासत नै भणाई पेटै तौ जांणी समझी ई, खुद वां विधावां में रुचि बधी के म्घ्हैं खुद कांनी सूं कीं नवौ जोघ् सकूं, गद्य माथै अधिकार करणौ म्घ्हनै आपणी कथणी नै गाढी अर पुख्घ्ता बणावण सारू सदा सूं ई जरूरी लागतौ रह्यौ। इण वास्घ्तै एम ए री पढाई रै दरम्घ्यान ई समीक्षा विधा माथै आछी पकड बणण लागी ही। अखबारां में जरूरी रिपोर्टिंग करण रा केई मौका अठै मिळता, खुद अखबारां में कविता, कहाणी, टीप इत्घ्याद छपण लागगी।
 वां दिनां जयपुर पत्रकारिता री दीठ सूं आछौ मुकाम मानीजतौ जठै राष्घ्ट्रदूत, राजस्घ्थान पत्रिका,नवज्घ्योति सरीखा अखबार छपता अर म्घ्हैं आं अखबारां में बरोबर छपतौ रह्यौ। एम ए पूरी करियां पछै आकाशवाणी रा कार्यक्रमां में कंपीयर रै रूप में भाग लेवतौ, तीन-च्घ्यार महीणां अेक अखबार री डैस्घ्क माथै काम कियौ, वां दिनां अठै सूं रावत सारस्घ्वत जी श्मरूवांणीश् पत्रिका छाप्घ्या करता, वां म्घ्हारी केई राजस्घ्थानी कवितावां अर कहाणी छापी। आपरै आयोजनां में कोड सूं बुलावता। घंटां साथै बैठाय राजस्घ्थानी रै नवै-जूनै लेखण सूं पिछांण बधाई।
वीं बगत साहित्य छेतर रा दरसाव आज ई आपरै चेतै आवै। अजै चालतै जुग कांनी देखौ तद के फरक?
एम ए करण रै दरम्घ्यान ई राजस्घ्थानी भासा अर साहित्घ्य बाबत जिकी चेतणा जागी अर लाग्घ्यौ के म्घ्हनै म्घ्हारी खुद री भासा में आछौ काम करणौ चाहीजै, उणी समघ्झ सूं म्घ्हारौ गाढौ रुझांण इण भासा अर साहित्घ्य सूं बध्घ्यौ। संजोग सूं एम ए में तेजसिंह जोधा म्घ्हारा गाढा मित्र अर हेताळू रह्या। म्घ्हे दोनूं अेक ई कमरै में साथै रैवता अर घंटां तांई कविता अर साहित्घ्य माथै आपसरी में बहस-संवाद करता। तेजसिंह वांई दिनां राजस्घ्थानी में एक काव्घ्य-पोथी रची ही - ओळूं री ओळ्यां, उण कविता नै लेय आछी बंतळ व्घ्हेती, फेर वां एक लांबी कविता पौळाईघ् श्कठै ई कीं व्घ्हेगौ हैश् अर साथै ई ‘राजस्घ्थानी-अेक’ सरीखी पत्रिका छापण री योजना बणाई। वांई दिनां म्घ्हारी राजस्घ्थानी कवितावां ई श्मरुवांणी अर ‘हरावळ’ में छपणी सूर व्घ्ही, हिन्घ्दी में ई कवितांवां बरोबर छपती रही अर साहित्घ्य म्घ्हारै सारू कोई फुरसत रै बगत रौ काम नीं रह्यौ - रात दिन उणी जुनून में रैवणौ रास आवतौ।  सन् 1972 में म्घ्हैं जयपुर सूं जोधपुर आयग्घ्यौ दृ ‘जलतेदीप’ अखबार में उपसंपादक रे रूप में अर अठै आवतां ई जोधपुर विश्घ्वविद्यालय में डॉ नामवरसिंह री देखरेख में पीएचडी करण रौ निस्घ्चै धारण कर लियौ। विसय हौ दृ ‘मुक्तिबोध की रचना प्रक्रियाश् इण विषय माथै जद काम करणौ सरू कियौ तौ लाग्घ्यौ के साहित्घ्य रौ औ दरियाब कित्घ्तौ उूंडौ अर कित्घ्तौ अथाग है। खूब जम नै अध्घ्ययन करण री जरूत लखावती, जित्घ्तौ पढतौ कमती पघ्तौ अर औरूं जांणण री भूख जागती। पछै नामवरजी सरीखै विदवान नै आपरै काम सूं रंजावणौ सहल नीं हौ, पीएचडी पूरी हुई व्घ्हौ के नीं, साहित्घ्य सूं जुघव जरूर पुख्घ्ता व्घ्हैग्घ्यौ अर खूब काम करण री हूंस जागी, जिकी आज तांई जारी है। 1972 रै आखरी में म्घ्हनै राजस्घ्थानी रा कवि सत्घ्यप्रकाश जी जोशी श्हरावळश् रौ काम देखण सारू मुंबई बुलाय लियौ, कोई दो महीनां तांई म्घ्हैं मुंबई रह्यौ, हरावळ रौ अेक विशेषांक वठै पूरौ कर म्घ्हैं जोशीजी री सलाह सूं श्हरावळश् पत्रिका नै जोधपुर ले आयौ अर अठै 1975 तांई इण पत्रिका रै जरियै राजस्घ्थानी रा नवा लिखारां सूं आछी तालमेल बणाई, वांनै पत्रिका सूं जोघ््या अर गाढै हेत सूं भासा सारू कीं काम करण रौ अवसर मिळयौ। वांई दिनां राजस्घ्थानी रा नवा अर चावा लिखारां सूं सीधौ संपर्क बण्घ्यौ, खुद वां माथै आलोचना लिखी, वै पत्रिका में तौ छपी, वांरौ अेक संग्रह श्दौर अर दायरौश् रूप में सांम्घ्ही आयौ। ‘अंधार-पख’ सरीखी कविता पोथी 1974 में पैली आ चुकी ही। इण भांत अक्घ्टूबर 1975 तांई राजस्घ्थानी अर हिन्घ्दी में एक नवै लेखक रै रूप में जित्घ्तौ काम करण रौ मौकौ मिळ्यौ, अर जिकी रफ्घ्तार बणी वा 1975 में आकाशवाणी री नौकरी में आयां अेकर कीं धीमी अवस पड़गी, पण साहित्घ्य सूं लगाव कदेई कमती नीं हुयौ। 
आकाशवाणी रौ मारग ई तौ एक भांत सिरजण सूं जुड़ेड़ौ हुवै। वठै ई खासा तजरबा हुया हुयसी?
आकाशवाणी सूं जुघ्यां साहित्घ्य सारू काम करण रौ अेक नुंवौ माध्घ्यम तौ हाथ आयौ अर आपरै हलकै (जोधपुर) में ई पैली पोस्टिंग मिळी तौ हलकै रा लोगां नै इण माध्घ्यम सूं जोडण रा आछा अवसर ई मिळ्या, खासकर लोकसंगीत अर साहित्घ्य री विधावां में काम करणवाळां नै इण माध्घ्यम सूं जोडण री पूरी कोसीस रही। पण इण माध्घ्यम री मोटी अबखाई आ पण लखाई के वठै जिकौ ई काम व्घ्है, वौ फगत वाणी सरूप में ई रैय जावै, साहित्घ्य में जिण भांत हरेक काम दस्घ्तावेज बण जाया करै अर संदर्भ सरूप आगै काम आवै, वा गुंजास अठै कमती रैवै, इण वास्घ्तै इण माध्घ्यम में जिकौ कांम हुयौ, उणरी आर्काइव्घ्ज वैल्घ्यू तौ जरूर है, अर जिका लोग उणरौ उपयोग करण री हूंस राखै, वै ई इणरौ महत्घ्व जांण सकै।  म्घ्हैं राजस्घ्थानी अर हिन्घ्दी री केई नामी साहित्यिक हस्तियां सूं जिका इंटरव्घ्यू इण माध्घ्यम परवांणै लिया, वै खुद में अेक मिसाल मानीजै। वां इंटरव्घ्यूज रौ एक संकलन श्संवाद निरन्घ्तरश् नांव सूं 1995 में छप्घ्यौ, जिणनै खूब पसंद करीजियौ, उणमें पदमश्री सीताराम लालस, लोक कलाविद कोमल कोठारी, कवी हरीश भादाणी अर भासा, साहित्घ्य अर संस्घ्कृति मे आछी पिछांण राखणवाळा विद्वानां रा साक्षात्घ्कार आप देख सकौ। म्घ्हैं इण मामलै में खुद नै भागवान मानू के म्घ्हनै आकाशवाणी अर दूरदर्शन री 33 बरसां री नौकरी में तकरीबन 21 बरस राजस्घ्थान रा न्घ्यारा न्घ्यारा सैरां में रैय नै काम करण रौ मौकौ मिळ्यौ अर म्घ्हारी पूरी कोसीस रही के राजस्घ्थानी जीवण, संस्घ्कृति अर साहित्घ्य सारू आं माध्घ्यमां रै जरियै कीं ओपतौ काम कर सकूं। औ काम हुयौ ई अर आज आकाशवाणी दूरदर्शन रै आर्काइव्घ्ज में अैडा कित्घ्ता ई संग्रहणीय कार्यक्रम आपने लाध सकै, जिका म्घ्हारी आफळ री कीं पिछांण आपनै जरूर देय सकै। म्घ्हनै आं माध्घ्यमां में काम करतां साहित्घ्य लेखण सारू सीमित बगत ई मिळ पावतौ, पण जद म्घ्हारी गौहाटी दूरदर्शन में दो बरस पोस्टिंग रही तौ वठै म्घ्हनै नैठाव सूं बगत मिळ्यौ अर म्घ्हैं श्सांम्घ्ही खुलतौ मारगश् सरीखौ पूणी दो सौ पेज रौ उपन्घ्यास राजस्घ्थानी में त्घ्यार कर सक्घ्यौ। यूं आं माध्घ्यमां में काम करण रै दरम्घ्यान हिन्घ्दी अर राजस्घ्थानी में म्घ्हैं बरोबर काम करतौ रह्यौ हूं, अर किताबां ई दोनूं भासावां में अगोलग छपती रही है।
इण जातरा बिचै आप राजस्थानी नै किण भांत देखौ?
राजस्घ्थानी म्घ्हारी जीवण जातरा रौ अणतूट हिस्घ्सौ रही, यूं म्घ्हारै काम रौ दायरौ अर माहौल इण भांत रौ रह्यौ के म्घ्हें किणी अेक भासा में बंध नै स्घ्यात ढंगसर काम नीं कर पावतौ, पण जद कद ई राजस्घ्थानी नै आपरौ माध्घ्यम बणाय नै काम करण रौ अवसर हाथ आावतौ, वठै अेक भावनात्घ्मक रिस्घ्तौ जरूर बणतौ अर जीव में थ्घ्यावस रैवती के आपरी भासा अर माटी सारू कीं करण रौ संजोग बण्घ्यौ । 
 राजस्घ्थानी भासा में आछौ साहित्घ्य-सिरजण हुवै, वौ राजस्घ्थानी लोकजीवण में आपरौ ओपतौ असर बणावै, वांरै काम री अणदेखी नीं हुवै अर आछौ काम करणवाळां रौ उछाव बण्घ्यौ रैवै, वांनै बधावौ मिळै के वै आपरै काम नै औरूं मैणत अर संजीदगी सूं करता रैवै, इण सारू आ बात घणौ महत्घ्व राखै के इण समरथ भासा नै संवैधानिक मान्घ्यता मिळै - आ बात राजस्घ्थानी में संजीदगी सूं लिखणवाळा साहित्घ्यकार आजादी मिळण रै बगत सूं कैवता आया हा, साहित्घ्य लेखण री अठै अेक अणतूट परंपरा रही, पण आपांरौ सगळां सूं मोटौ दुरभाग औ रह्यौ के इण भासा री मान्घ्यता रौ मसलौ राजनीत रा अळूझाघ् में इण भांत उळझा राख्घ्यौ है के इणरौ ओजूं तांई कोई छेघै-निवेघै नैघै नीं दीखै। अबै तौ राजस्घ्थानी सारू जनता में ई कीं जागरूकता आई है, भासा री मान्घ्यता सारू आन्घ्दोलन रा आसार ई केई दफै बणता दीखै, पण प्रदेस री जनता में जद तांई आ गाढी चेतना नीं बापरैला, भासा री मान्घ्यता रौ मसलौ म्घ्हनै कम ई सुळझतौ निगै आवै अर आ बात राजस्घ्थानी रा सगळा हेताळुवां वास्घ्तै गैरी चिन्घ्ता रौ कारण है।
राजस्थानी में समकालीन लेखन पेटै? जवान लिखारां सारू कोई दीठ?
साहित्घ्य-कर्म जठै मिनख में आछी मानवीय संवेदणा जगावै, खुद रचनाकार नै ई आछा संस्घ्कर देवै अर उणरी समाज में अेक पिछांण बणावै, साथै ई म्घ्हनै आ बात पण महताउू लागै के औ गाढी समाजू जिम्घ्मेदारी सूं जुघ्यिोघै काम व्घ्है, इण वास्घ्तै हरेक लेखक नै जस-अर्थ-काम-मोक्ष री सनातन भावना सूं उूपर उठ नै आपरै इण मानवीय अर कळा-धरमी काम नै कीं बधीक मांण देवणौ चाहीजै। नवा लेखक जे इण मूळ बात नै आपरै चित्घ्त अर सभाव रै आंगै उतार सकै, तौ निस्घ्चै ई राजस्घ्थानी में नवै लेखण सूं समाज आछी रचनावां री उम्घ्मीद राख सकै। इण लेखै हाल म्घ्हैं राजस्घ्थानी रचनाकारां रै सुभाव अर व्घ्यवहार में कीं औरूं संजीदगी री उम्घ्मीद राखूं। नवा लेखक राजस्घ्थानी भासा री असल सगती बणै, इण पेटै वांनै खूब लिखणौ चाहीजै, आपरै परिवेस नै बारीकी सूं देखै-परखै अर आपरै अणभव-जगत रौ विस्घ्तार करै, साथै ई आपरी परंपरा अर संस्घ्कृति री विरासत सूं गाढौ रिस्घ्तौ पण राखणौ चाहीजै। बाकी तौ आपौ-आप री उूरमा है।