सोनल पन्नों पर अंकित जीवन - राणी लक्ष्मीकुमारी चूंडावत


राजस्थान के रियासतकालीन युग में किसी क्रांति का सूत्रपात आज की मानिंद आसान नहीं था। उस समय जहां सामाजिक मर्यादाओं के आडंबर सृजित थे वहीं शिक्षा का भी व्यापक प्रसार नहीं था। गिनी-चुनी ही शैक्षणिक संस्थाएं थीं और उन्हीं में भी राजशाही या संभ्रात तबके में जन्में बच्चों को प्रवेश दिया जाता था। ऐसी परिस्थितियों के बीच स्वयं को ढालकर आजादी के सपने देखना और लोक को समझते हुए उसे शब्दों में अंकित करना निस्संदेह दुष्कर था। 
24 जून, 1916 को मेवाड़ के राव चूंडा के वंश में एक लक्ष्मी पैदा हुई, जिसे आगे चलकर लक्ष्मीकुमारी चूंडावत के नाम से जाना गया। लक्ष्मीकुमारी की मां नंदकुंवर झाला देलवाड़े ठिकाने के राजराणा जालिमसिंह की पुत्री थीं तो वहीं पिता विजयसिंह देवगढ ठिकाने के ठिकानेदार थे। हालांकि विजयसिंह का यह वंशानुगत उत्तराधिकार नहीं था। ठिकानेदार रावतकिशन ने उन्हें गोद लिया था। और यही वजह थी कि वे सामंत शासक, रईस और सत्ता केन्द्रित धूरी पसंदीदा थे। लक्ष्मीकुमारी को भी इसी साये में संपूर्ण सुख-सुविधाएं मिली जो हर राजपरिवार के बच्चों को मिलती हैं। नौकर, चाकर, ऐशो-आराम। परंतु लड़कियों की शिक्षा और उनके स्वच्छंद भ्रमण पर अंकुश था और लक्ष्मीकुमारी चाहते हुए भी उन बेडि़यों को नहीं तोड़ पाई। नौ-दस साल की अवस्था हो आने पर घर पर ही उनकी शिक्षा का प्रबंध किया गया। भाई संग्रामसिंह को पढाने मेयो काॅलेज सेे देवी चारण आते थे। घर पर शिक्षा-दीक्षा रूपी इसी व्यवस्था के हिस्से मानिंद देवी चारण ही लक्ष्मीकुमारी और छोटी बहिन खुमाण कंवर को भी अंग्रेजी पढाने लगे। वहीं पंडित पन्नालाल संस्कृत, मुंशी जाफरअली उर्दू भाषा के मोती सौंपने लगे। महेशदान आसिया ने संरक्षक की हैसियत से लौकिक संस्कार अर्पित किए। 
लक्ष्मीकुमारी इसी शिक्षा-दीक्षा के बीच पिता विजयसिंह के यहां आने वाले बातपोसों के माध्यम से बातें सुनकर लौकिक संस्कार ग्रहण कर रही थीं। प्रेम और घृणा के महीन से महीन सूत्रों को समझ रही थीं। राजस्थान में परम्परातगत रूप से चली आ रही प्रेमकथाओं के सूत्र बातों में जब आते तब लक्ष्मीकुमारी का मन द्रवित हो उठता, वहीं वीरता का तुरही वादन बातों में प्रस्तुत किया जाता तब खून खौल उठता। इसी आरोह-अवरोह के बीच ‘चांद’, ‘माधुरी’, ‘सरस्वती’ एवं ‘भविष्य’ जैसी पत्रिकाओं का वाचन-मनन होता रहा। वहीं कानपुर से प्रकाशित दैनिक ‘वर्तमान’ आजादी की ज्वाला प्रज्ज्वलित करता रहा।  
सन् 1934 में जब लक्ष्मीकुमारी मात्र 16 वर्ष की थी, तब उनका विवाह बीकानेर रियासत के रावतसर ठिकानेदार रावत मानसिंह के पुत्र तेजसिंह के साथ कर दिया गया। लक्ष्मीकुमारी के मन की उड़ान यहां शंकाओं के घेरे में आई, परंतु यह भ्रम जल्दी ही दूर हो गया। लक्ष्मीकुमारी को यहां पीहर से अधिक स्वच्छंदता और आजादी मिली। रावतसर के साथ-साथ बीकानेर का ‘रावतसर निवास’ लक्ष्मीकुमारी के सपनों को ऊंचाइयां देने लगे। वह पठन-पाठन में और रम गई। 
उन दिनों अजमेर ही एक ऐसी जगह थीं, जो स्वतंत्रता सेनानियों के लिए मुफसिल थीं। अजमेर सीधा ब्रिटिश क्षेत्र था। लक्ष्मीकुमारी कई दफा अजमेर गईं और अनेक स्वतंत्रता सेनानियों के संपर्क में आई। उनके श्वसुर रावत मानसिंह छोटे-से जुर्म में बीकानेर राजा गंगासिंह के यहां दस साल की सजा भुगत रहे थे। श्वसुर की यह दशा वेदना की पराकाष्ठा थी। लक्ष्मीकुमारी महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू से जुड़ाव के ख्वाब पालने लगीं। इसी दौरान वह महात्मा गांधी से मिलने शिमला भी गईं। 
आजादी के बाद रियासत एकीकरण के बाद रियासतदारों और ठिकानेदारों को सरकारी नौकरी में आने का निमंत्रण मिला। लक्ष्मीकुमारी के पति रावत तेजसिंह सरकारी सेवा में आ गए। यह कदम भी उस वक्त के राजपूत मुखियाओं को काफी पीड़ा पहुंचाने वाला था। रावत तेजसिंह की काफी निंदा की गई। परंतु यह दूरगामी कदम था, जिसकी समझ राणी लक्ष्मीकुमारी व रावत तेजसिंह के पास ही थीं। आगे चलकर  सरकारी सेवा में रावत तेजसिंह सहायक कमिश्नर देवस्थान, सहायक कलक्टर एवं प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट-चूरू, सचिव नगर विकास न्यास-बीकानेर आदि पदों पर रहे। 
इसी बीच राणी लक्ष्मीकुमारी और रावत तेजसिंह के आंगन 1935 में घनश्यामसिंह, 1936 में सुभद्रा, 1938 में रूपमणि, 1942 में उमाशशि, 1944 में बलभद्रसिंह तथा 1950 में राज्यश्री का संतानों के रूप में आना हुआ। 1952 के आम चुनाव आने तक राणी लक्ष्मीकुमारी चूंडावत इन्हीं पारिवारिक दायित्वों में रमी रही। परंतु 1957 का चुनाव आया तब कुछ करने का जज्बा परवान पर था। काफी सोच-विचार के बाद राणी लक्ष्मीकुमारी चूंडावत ने राजस्थान विधानसभा के भीम क्षेत्र को अपने लिए उपयुक्त माना और यहां से 1957 का चुनाव लड़ा। पंडित जवाहरलाल नेहरू की अनुशंसा पर उन्हें टिकट मिला था, इसका राजनैतिक लाभ भी उनके साथ था।
परंतु, राणी लक्ष्मीकुमारी चूंडावत राजपूत समाज की संभवतः पहली महिला थी, जो पर्दा त्यागकर देहरी से बाहर कदम रख रही थीं। इसी प्रगतिशील कदम की बदौलत पूरा समाज उनके खिलाफ था और यह चुनाव उस विरोध के लिए मौका बन गया। फलस्वरूप चूंडावत जी यह चुनाव हार गई। 
1967 आते वक्त नहीं लगा और चूंडावत फिर भीम से ही चुनाव लड़ी। राणी लक्ष्मीकुमारी चूंडावत यह चुनाव जीत गई। अपने अनुभवों को समेटते हुए वे बताती थीं कि कैसे उन्होंने हाथी पर बैठकर दुर्गम क्षेत्रों में चुनाव प्रचार किया। कैसे प्रदेश के सामाजिक संदर्भों ने उनका आजीवन पीछा किया। कैसे पार्टी उनके पक्ष-विपक्ष में खड़ी रही।
किशोरावस्था में पिताजी के यहां बातपोस और बहीभाट द्वारा कही हुई राजस्थानी लोककथाएं, लोकगाथाएं राणी लक्ष्मीकुमारी चूंडावत के लिए राजनीतिक क्षेत्र में काफी सहायक रहीं। लोक की नब्ज उनके गिरफ्त में थीं और लोक की भाषा और भावों के साथ वह चुनाव समर में थीं। इसी बदौलत राजस्थान विधानसभा के अपने पूर्ववर्ती भीम क्षेत्र से ही उन्होंने 1967 और 1980 के चुनाव भी जीते। 
चूंडावतजी की गहरी समझ, निडर स्वभाव और क्रांतिकारी मनोस्थिति के चलते कांग्रेस ने उन्हें प्रदेश का नेतृत्व सौंपने का मन बनाया। सन् 1972 में उन्हें पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया। राजस्थान में 1972 को विधानसभा चुनाव उनकी ही अगुवाई में लड़ा गया और 180 में से 145 सीटों का प्रचण्ड बहुमत पार्टी को मिला। इसी वर्ष यानी 1972 में ही लक्ष्मीकुमारी जी संसद के उच्च सदन राज्यसभा के लिए चुनी गईं।    विधानसभा और संसद में रहते राणी लक्ष्मीकुमारी चूंडावत ने लोकहित के अनेक मुद्दों का उठाया। नारी-उत्थान उनकी प्राथमिकता में था। 
ें चूंडावत जी ने विधानसभा में सभापति रहते उल्लेखनीय कार्य किया। यही नहंी राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ, राजस्थान इंडिया-चाइना मैत्री संघ, भारत-सोवियत मैत्री संघ, अखिल भारतीय सैनिक संगठन, नारी जागृति परिषद, शांति एकजुटता परिषद, साहित्य अकादेमी, राजस्थान साहित्य अकादमी, राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी आदि संस्थाओं के साथ काम करते हुए भी उन्होंने अपनी श्रमशीलता और बौद्धिक क्षमता का दिव्य प्रदर्शन किया।
राजनीतिक उठा-पटक के बीच साहित्य सृजन भी निरंतर रहा। बचपन में जोगदान चारण से सुनी बातों और आगे चलकर गुजराती के लोक साहित्य मर्मज्ञ झेवरचंद मेघाणी की साधना से प्रभावित होकर राणी लक्ष्मीकुमारी ने लोक-साहित्य की राजस्थानी धुन आलापी। सन् 1957 में इसी धुन पर ‘मांझल रात’ संग्रह आया, जोकि उनकी साहित्य साधना का प्रथम उपलब्धिमूलक सोपान था। लोक साहित्य में बात, गीत और गाथा प्रमुख हैं। राणी लक्ष्मीकुमारी चूंडावत ने इन सभी पर जमकर काम किया। मूमल, अमोलक बातां, के रे चकवा बात, राजस्थानी लोकगाथा, राजस्थान की प्रेम गाथाएं, राजस्थान की रंगभीनी कहानियां, देवनारायण बगड़ावत की महागाथा, राजस्थानी लोकगीत, रजवाड़ी लोकगीत, राजस्थान के सांस्कृतिक लोकगीत आदि पुस्तकें इस बात की साक्षी हैं। 
राजस्थानी भाषा की संवैधानिक मान्यता का संकल्प हर कदम का ध्येय रहा। फलित होना, न होना, संयोग-दुर्योग हो सकता है परंतु राणी लक्ष्मीकुमारी की साधना नित्य इस ओर रही। इसी साधना के बीच भारत सरकार ने उन्हें 1984 में राजस्थानी साहित्यिक सेवाओं के लिए ‘पद्मश्री’ से भी अंलकृत किया। राजस्थान सरकार ने 2012 में उन्हें ‘राजस्थान रत्न’ दिया। वहीं अनेक संस्थाओं ने अपने उल्लेखनीय पुरस्कारों से नवाजा। 
आपने बीस से अधिक देशों की यात्राएं भी की। यात्राओं के संस्मरण उनकी पुस्तकें ‘हिन्दू कुश के उस पार’ तथा ‘शांति के लिए संघर्ष’ में मौजूद हैं।
चूंडावतजी द्वारा लोककथा को केंद्र में रखकर लिखी गई कहानी ‘सैंणी-बींझा’ पर दूरदर्शन के सुकन्या और अनुकपूर की मुख्य भूमिका में ‘पथराई आंखों के सपने’ फिल्म भी बनाईं गई।
24 मई, 2014 को हमारे बीच से ऐसी शख्सियत का जाना निस्संदेह एक युग का अवसान होना है। विनम्र श्रद्धांजलि।

रानी लक्ष्मीकुमारी चूंडावत: पुस्तकें

1. मांझल रात ः राजस्थानी कथा संग्रह   ः 1957
2. मूमल : राजस्थानी कथा संग्रह ः 1959
3. अमोलक बातां: राजस्थानी कथा संग्रह: 1960
4. गिर ऊंचा-ऊंचा गढ़ां : राजस्थानी कथा संग्रह: 1960
5. के रे चकवा बात: राजस्थानी कथा संग्रह: 1960
6. राजस्थानी लोकगाथा ः राजस्थानी कथा संग्रह ः 1966
7. राजस्थान की प्रेम गाथाएं :राजस्थानी प्रेमकथाओं का हिन्दी अनुवाद: 1966
8. राजस्थान की रंगभीनी कहानियां: राजस्थानी प्रेमकथाओं का हिन्दी अनुवाद: 1986
9. हुंकारा दो सा : राजस्थानी बालकथा संग्रह : 1957
10. टाबरां री बातां: राजस्थानी बालकथा संग्रह ः 1961
11. गांधी जी री बातां: राजस्थानी बालकथा संग्रह ः 1962
12. बात करामात: हिन्दी बाल कथा संग्रह: 1981
13. हिन्दू कुश के उस पार: यात्रा संस्मरण: 1959
14. शांति के लिए संघर्ष ः यात्रा संस्मरण ः 1966
15. अंतरध्वनि: गद्य गीत: 1948
16. देवनारायण बगड़ावत महागाथा: राजस्थानी लोकगाथा ग्रंथ ः 1977
17. रवि ठाकर री बातां ः रवीन्द्रनाथ ठाकुर की बांग्ला कहानियों का राजस्थानी अनुवाद: 1961
18. संसार री नामी कहानियां ः इटली, फ्रांस, ब्रिटेन, चीन, अमेरिका इत्यादि देशों के रचनाकारों की कहानियों का अनुवाद: 1966
19. सूळी रा सूया माथै: जुलियस फुचिक री पुस्तक ष्छवजम तिवउ ळवससवूेष् का राजस्थानी अनुवाद: 1966
20. गजबण: रूसी प्रतिनिधि कहानियों का राजस्थानी अनवुाद ः 1978
21. लेलिन री जीवनी ः लेनिन की जीवनी का राजस्थानी अनुवाद: 1970
22. कवीन्द्र काव्य लतिका ः संपादित ः 1958
23. राजस्थान का हृद्य ः संपादित ः 1956
24. राजस्थानी दोहा संग्रह ः संपादित ः 1960
25. राजस्थानी के प्रसिद्ध दोहे-सोरठे: संपादित ः 1961
26. राजस्थानी लोकगीत ः संपादित ः 1961
27. रजवाड़ी लोकगीत ः संपादित ः 1981
28. राजस्थान के सांस्कृतिक लोकगीत: संपादित: 1985
29. जुगल विलास ः संपादित ः 1958
30. वीरवाण ढाढी बादर री बणायो: संपादित ः 1960
31. सांस्कृतिक राजस्थान ः हिन्दी निबंध संग्रह: 1994
32. थ्तवउ चनतकं जव चमवचसम ः आत्मकथा, संपादन- फ्रासेस टेफ्ट, अंग्रेजी: 2000
33. राजस्थान के रीति-रिवाज ः हिन्दी निबंध ः 2002

पुरस्कार-सम्मान:

1. मारवाड़ी साहित्य सम्मेलन, बम्बई, 1960
2. सोवियत लैण्ड नेहरू पुरस्कार-1995 (इण्डो-सोवियत सांस्कृतिक सोसाइटी द्वारा ‘हिन्दू कुश के उस पार’ पुस्तक पर भारत की सूचना एवं प्रसारण मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के कर-कमलों द्वारा।)
3. विशिष्ट साहित्य सम्मान-1972 (राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर द्वारा)
4. राजस्थान रत्न - 1976 (राजस्थान भाषा प्रचारिणी सभा, अजमेर द्वारा)
5. दीपचंद नाहटा पुरस्कार-1977 (राजस्थानी रत्नाकर, दिल्ली द्वारा)
6. सोवियत लैण्ड नेहरू पुरस्कार-1976 (यूएसएसआर सरकार द्वारा रूसी कहानियों के अनुवाद ‘गजबण’ पर भारत के उपराष्ट्रपति हिदायत उल्ला खान के कर-कमलों द्वारा)
7. झेवरचंद मेघाणी स्वर्ण पुरस्कार-1979 (लोक संस्कृति शोध संस्थान, चूरू द्वारा अहमदाबाद में ‘बगड़ावत देवनारायण महागाथा’ पर)
8. राणा कुम्भा पुरस्कार-1982 (महाराणा मेवाड़ फाउण्डेशन, उदयपुर के तत्वावधान में महाराणा भगवतीसिंह जी के कर-कमलों द्वारा)
9. पद्मश्री-1984 (भारत सरकार द्वारा राजस्थानी साहित्य और संस्कृति के विशिष्ट योगदान पर)
10. साहित्य महोपाध्याय उपाधि-1988 (साहित्य सम्मेलन, प्रयाग द्वारा)
11. नाहर पुरस्कार-1992 (बम्बई)
12. लखोटिया पुरस्कार-1993 (रामनिवास आशारानी लखोटिया ट्रस्ट, नई दिल्ली द्वारा राजस्थानी साहित्य में योगदान पर)
13. सरस्वती पुरस्कार-2001 (एनएमकेआरयू काॅलेज, बैंगलोर द्वारा समग्र लेखन पर)
14. डाॅक्टर आॅफ लिटरेचर-2002 (कोटा खुला विश्वविद्यालय, कोटा द्वारा)
15. महाकवि पृथ्वीराज राठौड़ पुरस्कार-2003 (राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर द्वारा राजस्थानी साहित्य के समग्र योगदान पर)
16. गोइन्का राजस्थानी साहित्य सारस्वत सम्माना-2005 (कमला गोइन्का फाउण्डेशन, मुम्बई द्वारा राजस्थानाी साहित्य में समग्र योगदान पर)
17. राजस्थान रत्न-2012 (राजस्थान सरकार द्वारा साहित्यिक योगदान हेतु)


1 comment:

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